शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

गोबराहारी [अतुकांतिका]

 073/2024

            

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्


वहीं जन्म 

वही आहार

कैसा है यह चमत्कार !

पहेली नहीं यह

 मात्र शुद्ध गोबराहार।


उसी ने जन्माया

उसी को खाया

उसी में वास

उसी का साया,

समझा कोई पहेली?

बताओ तो जरा भाया।


गोबराहारी

गोबरवासी 

गोबर ही पिता

गोबर ही माँ जी,

सारे जगत से संन्यासी

बड़ी ही उदासी

कहते सब गुबरैला जी !

गुबरैला जी!!


अपने में मस्त

सीमित विन्यस्त

चुस्त - दुरुस्त

एक ही गंध

उसको लगती सुगंध

भाए नहीं कलाकंद,

कोई नहीं द्वंद्व।


'शुभम्' ऐसे भी 

कुछ यहाँ मानव,

पसंद नहीं है

जग का रव,

विचित्र है उनका ढब,

सोच है बड़ी अभिनव,

गुबरैला बने जीते हैं,

जहाँ से जन्मते हैं

उसे ही खाते - पीते हैं।


●शुभमस्तु !


22.02.2024 ●7.30प.मा.

                   ●●●

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