054/2024
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●© शब्दकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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हर एक कली में
एक आशा
सकुचाई-सी
बैठी है उनींदी- सी
लेती जमुहाई -सी।
रात -दिन झूमती है
डाली पर कली,
पता ही नहीं चला
कब फूल बन गई
मनचली।
घूँघट ज्यों खोलकर
कोई नवोढ़ा
झुकती कुछ
लचकती मचकती
शरमाई हुई
परफ्यूम लगाई हुई।
जिसने भी निहारा
निहारता ही रह गया,
निहारते -निहारते
हारा, हारता ही गया,
आशा जो फलीभूत हुई
सुमन में तब्दील हुई।
देती हुई संदेशा
हँसो मुस्करा लो
जी भरके,
हस्र तो सबका
एक ही है
इस भूधर में,
आए हैं
तो सुगंधें फैलाएँ,
नाम तो कमाएँ।
●शुभमस्तु !
08.02.2024● 3.15प०मा०
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