गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

पथिक ● [ सोरठा ]

 045/2024

                

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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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चलता  रह अविराम,पथिक पंथ में पग   बढ़ा।

जग   में   चमके   नाम,शीघ्र  मिले गंतव्य  भी।।


मंजिल   सबकी   एक, सबकी राहें   भिन्न  हैं।

मत खो बुद्धि विवेक,पथिक चला चल धैर्य से।।


पथिक   चले  जो राह,पथ में आते मोड़   भी।

क्या  मन  की  सत चाह,चौराहे पर   सोच  ले।।


चलता रहता नित्य,जीव-पथिक बहु यौनि में।

यात्रा  का   औचित्य,  चालक  तेरे कर्म   हैं।।


समझ न मंजिल मीत,पथ में बहुत पड़ाव  हैं।

मिले न जब तक जीत,पथिक बने चलते रहो।।


यात्रारत    है   जीव,मानव की इस देह    से।

भक्ति मिलाए पीव,पथिक श्रेष्ठ इस  यौनि  में।।


पावनतम   गंतव्य,  मानुस  की शुचि   देह  का।

शुभतम हो मंतव्य,पथिक चले यदि ज्ञान से।।


मिले  न  मंजिल  नेक,पथिक भटकते राह में।

त्याग  पूर्ण  अविवेक,इन्द्रिय दस से   जान  ले।।


सदृश  किंतु  है जीव,नर - नारी तो नाम  हैं।

एक सभी का पीव,पथिक-पंथ बदला रहे।।


अलग गाड़ियाँ रेल,पथिक पंथ में चल रहे।

कोई  चले  धकेल, कोई   उतरा बीच  में।।


हुआ किसी से मेल,मिले पथिक बहु राह में।

मैला  मैल-कुचेल, फूटी  आँख न सोहता।।


●शुभमस्तु !

01.02.2024●1.00प०मा०

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