रविवार, 4 फ़रवरी 2024

मुखद्वार- महिमा● [ व्यंग्य ]

 046/2024



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●© व्यंग्यकार

 ● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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 आइए !आज आदमी की देह के प्रवेश द्वार : मुखद्वार से मिलते हैं।हमारा मुख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है।इस मुख सौंदर्य पर ही तो जीवन और जीवन साथी का आधार पूर्ण है।इसके गोरे या साँवली सूरत पर पसंद का आधार है।क्या इस बात पर भी आपने कभी कर लिया विचार है?इसके नीचे भले ही कोई लम्बा हो या नाटा, पतला हो या मोटा,छरहरा हो या या आलू का पराँठा :सब चलेगा।इसके विपरीत यदि मुख की रंगत जिसे चेहरा कहें या देह का मोहरा कहें,कुछ गड़बड़ हो ,तो फिर सम्बन्ध भी गड़बड़ हो जाता है। मुख की बनावट सजावट दिखावट से कोई भी समझौता नहीं कर पाता है। पर यह भी सत्य है कि हर एक चेहरा किसी न किसी को भा ही जाता है।इसलिए कोई भी नारी या नर कभी कुँवारा नहीं रह पाता है। सबका एक न एक जोड़ परमात्मा कहीं न कहीं किसी न किसी से अवश्य मिलवाता है।

  हम मुख्यद्वार की बात करने चले थे अर्थात हमने अपने मुखद्वार को अपनी चर्चा का आधार बनाया था,हम भटक गए और चेहरे की चौपाल लग गई।चलो कोई बात नहीं ,पुनः मुखद्वार पर आते हैं और इस मुखद्वार के सदगुण गिनवाते हैं। जब भी हम कहीं किसी नई जगह पर किसी संस्था ,संस्थान या व्यक्ति के घर के लिए जाते हैं तो सबसे पहले उसके मुख्यद्वार की घण्टी बजाते हैं।इससे स्पष्ट होता है कि हमारी देह में इस छोटे से मुख का कितना बड़ा स्थान है। इसके बिना तो पूरा शरीर ही वीरान है।

 हम सबका यह मुखद्वार बहुआयामी है।अन्य देहांगों की तरह इसके भी बहुत से काम हैं। इसका एक -एक काम पूरे आदमी पर भारी है।यह अत्युक्ति न होगी कि मुख के ऊपर ही तो देह की जिम्मेदारी है।इसका पहला काम शिशु के जन्म क्षण से ही आरम्भ हो जाता है ,जब वह अपनी भाषा में ह्वा'! व्हा' !! (हुआ! हुआ!! )हाउ! ,ह्वाई!, म्याऊ!,म्याई! करता हुआ रोने लगता है और अपनी व्यथा या जरूरत का रोना रोने लगता है।इससे यह स्पष्ट हुआ कि रोना इसका पहला काम है ,जो आजीवन चलता रहता है।यह अलग बात है कि बड़े होने पर इस रोने के रूप बदल जाते हैं।तब आदमी रोने के लिए अनेक रूप सामने लाते हैं।शिशु का पहला रुदन उसकी पेट की भूख का संकेतक भी हो सकता है।अथवा बाहरी दुनिया में आकर यह व्यक्त करने का होता है कि अरे !अरे !!यह मुझे कहाँ ला पटका! यहाँ से तो वहीं पर अच्छा - भला पड़ा हुआ था। यह कौन सी दुनिया में भेज दिया मेरे विधाता !जहाँ आकर मैं नंगा होने पर भी नहीं शर्माता!ये शर्माना भी तो इस मुख से ही सम्भव होता है। कारण कहीं और, और कार्य कहीं और ।यहीं से शुरू हुआ होगा अलंकारों का दौर। 

 रुदन के संकेत को समझा गया और माँ का स्तन उसमें ठूँस दिया गया। अब वह लग गया अपना दूसरा कर्तव्य निर्वाह पूरा करने में। दूसरा महत्वपूर्ण कार्य हुआ उदर पूर्ति। अर्थात आहार ग्रहण करना।देह का पोषण करना। कुछ और बड़ा होने पर अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य मिल गया ,उसका बोलना। जिसका एक अंग गाना भी उसी में शामिल हुआ।बोलने के लिए कंठ, मूर्धा,जीभ,तालू,दाँत ,ओठ आदि सभी का सहयोग मिला। सुर सजे। गीत गाए। मजे ही मजे। अब चाहे आदमी राम राम भजे या आदमी आदमी को ठगे।साँस लेने के लिए यद्यपि नाक की पृथक व्यवस्था है किंतु मुख भी कम नहीं। वह भी सदा नाक का काम साधने के लिए तैयार।है भी तो वह उसी का यार।इसलिए कभी- कभी साथ देने के लिए रहता है होशियार।नाक और मुख दोनों ही महत्त्वपूर्ण द्वार।नाक तो जीवन का ही द्वार है,इसलिए किंचित ऊपर ही उसका प्रसार है।मुख और द्वार के परस्पर अनेक सहयोगी:ओठ, जिह्वा,दाँत, मूर्धा, कंठ, मूँछ,दाढ़ी आदि। 

 मुखद्वार की ये अनंत महिमा।इसके हाव भावों को तो कहना ही क्या! समग्र साहित्य ही इससे भरा पड़ा। कवि और लेखकों के हृदय बीच गहरा गढ़ा।अनेकशः विधाओं में बाहर आता बड़ा।कहावतें, लोकोक्तियाँ, छंद, गीत, आल्हा,मल्हार।और भी न जाने कितनी- कितनी है इस मुखद्वार की बहार। बोलते - बोलते न थक जाने का विशेष गुण।विश्वास न हो तो किसी नेताजी को ही देख जान लीजिए।और पूछिए कि क्या आपका मुख कभी थकता भी है ?या इसके अंदर कोई ऑटोमेटिक मशीन फिट करा रखी है ? तो वह यही कहेगा कि वह तो जन्म से ही ऐसा है।मेरे मुखद्वार का चमत्कार ही कुछ वैसा है।शब्दों की टकसाल है यहाँ !यही तो उगलता हमें पैसा है।

 ●शुभमस्तु ! 

 04.02.2024●3.45प०मा०

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