शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

बाल की खाल ● [ व्यंग्य ]

 066/2024 

  

© व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 आजकल 'बाल-साहित्य' की विशेष चर्चा रंग बिखेर रही है।जहाँ जाएँ वहाँ बाल ही बाल बिखरे पड़े हैं।हम भी आज उसी बाल चर्चा के लिए निकल पड़े हैं।बाल-रोग विशेषज्ञ के बोर्ड और फ्लैक्स गली-गली, सड़क-सड़क,शहर-शहर,वाल-दीवाल पर लगे पड़े हैं।कवि लोग बाल गीत,बाल कविता, बाल गीतिका,बालकथा,बाल लघुकथा, बाल चित्रमाला सजाने में तल्लीन हैं।वे बड़े - बड़े बाल साहित्यकार बने हुए माला और शॉल से सम्मानित होकर गौरवान्वित हो रहे हैं।

  बाल की चर्चा का श्रीगणेश हुआ है तो असली बाल को कैसे भुला जा सकता है।जिस बाल चर्चा में रीति काल से लेकर आधुनिक काल तक कवियों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। नायिका के घने बालों से भ्रमित होकर जुगनू धमाचौकड़ी मचाते हैं तो राधा के श्याम घनश्याम ही हो जाते हैं। भौंरे भ्रमित हुए तो गोरी के कपोलों पर छाए घने बाल समूह पर ही मँडराने लगे।सिनेमाई नायक तो नायिका के बालों के इतने मतवाले हैं कि उन्हें घटाएँ समझ कर दिन में ही रात की कल्पना से मदहोश हो जाते हैं।किसी के घुँघराले हैं तो किसी के सर्पीले।किसी के उलझे हैं तो किसी के जूड़ाबद्ध।आजकल के नाइयों की दुकान पर जाकर देखो तो सिर पर केकड़े ,कछुए,मानवीय चेहरे,शेर,बिल्ली,कुत्ता,घोड़ा,गधा, और न जाने क्या -क्या उकेर देने लगे हैं। यह भी विचित्र बाल कलाकारी है जो नीचे से ऊपर तक देखी भी जाती है और यदि न देख पाओ तो समझी भी जाती है।कुछ चीजें केवल कल्पनागत हैं,उन्हें ज्यादा उघाड़कर देखना भी शिष्टाचार की सीमा का खुला उल्लंघन है। वह आचार संहिता के विरुद्ध होगा,इसलिए यहाँ बाल की खाल और ज्यादा न निकाली जाए तो ही श्रेयस्कर होगा। 

  वैसे सामान्यतः यह मानव देह भी किसी बाल भवन क्यों बाल किले से कम नहीं है।नख से शिख तक बाल- बोलबाला है।सबका अपना-अपना काम बड़ा निराला है।ज्यादा दूर क्यों और कहाँ जाएँ ये अकेला चेहरा ही बाल - गढ़ है,बाल - दुर्ग है।कहीं से भी शुरू करें ;बाल ही बाल।आँख ने अपनी सजावट और सुरक्षा के लिए अभेद्य दो - दो बाल दीवार खड़ी कर रखी हैं। जिन्हें एक विशेष नाम - 'भौंह' से जाना और समझा जाता है।महिलाओं के द्वारा इनका बड़ी होशयारी से बनाव -सजाव किया जाता है।एक -एक बाल को चिमटी रूपी तलवार से तराशा जाता है। भौंह के बाल अपने स्थान पर सजे हुए स्थिर अवस्था में नेत्र -शोभा का एक प्राकृतिक उपकरण बनकर उभरते हैं। यह अलग बात है कि वृद्धावस्था में ये भी अपना रंग बदलते हैं। आँखों के पलक रूपी मजबूत कपाटों पर तने हुए बाल भी नेत्र रक्षक का कार्य करते हैं।जिन्हें 'बरौनी' कहते हैं। जो रात-दिन नीचे ऊपर झपकते रहते हैं।आँखों के नीचे की विशेष संरचना नाक कहलाती है। किंतु ये भी नहीं बाल झुंड से खाली है।ये तो इंसान के लिए जीवन की दुनाली प्रणाली है। इसके सुरक्षात्मक बाल श्वास में अवरोधक अवांछित का तिरस्कार बहिष्कार करते हुए ऑक्सीजन का परिष्कार करते हैं। 'नाक के बाल होना ' एक प्यारा - सा मुहावरा इन्हीं के लिए बना है। नाक से किंचित नीचे उतरे तो मूँछ और इधर उधर नीचे ऊपर दाढ़ी की ड्यौढ़ी ही सजी हुई है। नारियां यहाँ बाल - वैभव- वंचिता हैं।इस बाल -विज्ञान में पुरुषों का पौरुष संग्रहीत है।

  चेहरे से अगल- बगल या नीचे और निम्नतर झाँकें तो बाल - सरिताएँ ही नहीं, बाल-सागर है। इनके अधिक विस्तार में क्यों जाएँ ,यह सर्व विदित है ,सर्व उजागर है।कुदरत ने आदमी को ,विशेष रूप से पुरुष को बालागार ही बना डाला है। नारियों पर सौंदर्य बरसाया है ,सारा बाल - बदला हम पुरुषों से निकाल डाला है। एक के देह में नाली और नाला तो दूसरी ओर चुनी गई माला। क्या करें बाल - हमला झेल रहे हैं।मंगल,गुरु और शनिवार को छोड़ उन्हें चेहरे से उसेल रहे हैं।

  लगता है जाने क्या सोचकर बनाने वाला पगतल ,करतल और नखतलों पर बाल उगाना भूल गया।नहीं तो भालू और इंसान में भी भेद करना कठिन हो जाता। वास्तव में बाल की खाल कितनी भी निकाली जाए ,परंतु पूरी तरह नहीं निकाली जा सकेगी।बाल विज्ञान, बाल साहित्य, बाल व्यंग्य, बाल ज्ञान,बाल चिकित्सा, बाल कमाल का जो जग विख्यात धमाल है ,वह पूरी तरह एक सवाल है।बुद्धि की अणुवीक्षण सूक्ष्मता विशद शोध का विषय है। न आकाश के तारे गिने जा सकते हैं और न मानव देह के बाल। अब एक तरह के बाल हों तो उनकी खाल का विश्लेषण भी किया जाए। साहित्यिक बाल देखें या चिकित्सकीय बाल अथवा दैहिक बाल।सबका अपना ही है विचित्र संसार।कुछ भी हो ये बाल हैं प्रकति का अनुपम उपहार।इनमें चाहे सुगंधित तेल डालें या भेजें विद्यालय के द्वार।कविता गीत लिखें या करें बालकथा से उपसंहार।अस्वस्थ हो जाने पर ले जाएँ बाल -चिकित्सक के अस्पताल। यहाँ- वहाँ, जहाँ-तहाँ बिखरे हैं , निखरे हैं छोटे- बड़े बाल।दैहिक बालागार ने कर दिया निहाल। ●शुभमस्तु ! 

 17.02.2024●11.00आ०मा०

 ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...