गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

वासंती मधुमास ● [ दोहा ]

 071/2024

        

[बसंत,बहार,प्रत्याशा,प्रेम,मधुमास]


© शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक

कुहू-कुहू    कोकिल   करे, बगरे बाग  बसंत।

सरसों फूली खेत  में,क्षितिज छोर पर  अंत।।

आते    देख बसंत को,  करें  विटप पतझार।

नवल  वसन  धारण  करें, लता  पेड़ रतनार।।


कली-कली  हँसने  लगी,सुमन  सजे  कचनार।

हरियाने   सूखे     विटप,   आती    देख  बहार।।

सुमन  न  खिलते बाग में,सदा न सजे    बहार।

थिर न  रहे  यौवन कभी,थिर न सिंधु  में ज्वार।।


प्रत्याशा  में   जी  रही, कब आवें प्रिय   कांत।

विरहिन  फगुनाई  हुई, उर  है विकल  अशांत।।

प्रत्याशा  की    डोर    में,   बँधे प्रिया  के    नैन।

प्रीतम    देंगे     लौटकर ,  उर  को  मेरे   चैन।।


कोकिल और  बसंत  का,अद्भुत अविचल प्रेम।

गाती   स्वागत   में   सदा, बरसाते तरु   हेम।।

प्रेम   बिना  जीवन   नहीं,अमर  रहे  विश्वास।

मानवता  के  पेड़  पर,मृदुल सुमन का   हास।।


मृदुल  षोडशी   देह  में, यौवन   का मधुमास।

करता  नित  अठखेलियाँ,पावन पूर्ण उजास।।

कामदेव  ने  हाथ  में, लिया  धनुष निज   तान।

फ़ागुन में मधुमास ये ,  भरता सुमन निधान।।

                    एक में सब

प्रत्याशा   में    प्रेम  की,जीती लेकर आस।

विरहिन  देख बहार को,है बसंत  मधुमास।।


●शुभमस्तु !


21.02.2024●10.15आ०मा०

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