गुरुवार, 12 सितंबर 2019

आज भी गुलाम हैं हम [ लेख]

आज भी गुलाम हैं हम
         [ लेख]
                   पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे। आज हम अपनी मानसिकता के गुलाम हैं। अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत के गुलाम हैं। अपनी सभ्यता , संस्कृति, भाषा , वेशभूषा, आचार , व्यवहार , खानपान, पहनावा सब कुछ अभारतीय और अजूबा - सा है।जिस ओर भी दृष्टि डाली जाए , भारतीयता दूध से मक्खन की तरह ग़ायब ही मिलेगी।
                    आज हमारे विचार करने का प्रमुख बिंदु हमारी भाषा है। आज का युग प्रदर्शन का युग है। इस प्रदर्शनप्रियता से भाषा भी प्रभावित हुई है। अपनी मातृभाषा के सम्मान का भाव हमारे मन में लेशमात्र भी नहीं है। यदि बात मातृभाषा हिंदी की ,की जाए तो इसे बोलना , सीखना और सिखाना गंवारपन माना जाता है।कान्वेंट शिक्षा पद्धति ने इस दिशा में आग में घी डालने का काम किया है। दिल्ली , उत्तर प्रदेश , हिमाचल प्रदेश , बिहार , राजस्थान , मध्य प्रदेश आदि हिंदीभाषी राज्यों के साथ- साथ देश के भाषा के आधार पर विभाजित प्रदेशों महाराष्ट्र , आंध्र प्रदेश, बंगाल , तमिलनाडु , केरल आदि में भी हिंदी बोली , समझी औऱ पढ़ी , पढ़ाई जाती है। लेकिन देश के लोगों की विकृत मानसिकता का क्या किया जाए ? लोगों के मन -मस्तिष्क में यह बात बिठा दी गई है कि अंग्रेज़ी के बिना रोज़ी -रोटी नहीं चल सकती । इसलिए जब तक अंग्रेज़ी का अध्ययन नहीं किया जाएगा , तब तक कुछ भी नहीं होगा। जो अंग्रेज़ी जानेगा , उसी को रोज़ी -रोटी मिलेगी। बिना अंग्रेजी विज्ञान का अध्ययन नहीं हो सकता । ऐसी ही बहुत सारी मिथ्या बातें लोगों के दिमाग़ों में घर कर कर गई हैं, जिनका निकलना इतना सहज नहीं है।

            आज हिंदी गरीबों , गॉंवों, गँवारों की भाषा मानी जाने लगी है। तथाकथित अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों की स्थिति तो इतनी अधिक चिंतनीय है कि ऐसा लगता है कि इनका काम हिंदी को अपमानित और पददलित करने का ही है। हिंदी में नमस्ते करने या कुछ भी बोलने पर बच्चों को दंडित किया जाता है। इस आर्थिक दंड का भुगतान उनके माँ-बाप को करना पड़ता है, क्योंकि इन काले अंग्रेजों के कारख़ानों में काले अंग्रेजों का निर्माण किया जाता है , इसलिए वे खुशी -खुशी अपमान का घूँट पीते हैं, और बड़ी शान से पीते हैं।'आज हमारे बेटे ने हिंदी में नमस्ते कर ली ,तो उस पर पचास रुपये जुर्माना भरना पड़ा।' है न कितनी बड़ी खुशी की बात! जैसे बच्चे को नोबल प्राइज़ से नवाजा गया हो। इस तरह काले अंग्रेजों को ढाल -ढाल कर पक्का किया जा रहा है। गधे को गंगा नहलाकर गाय नहीं बनाया जा सकता। बात यहीं आकर थम नहीं जाती , ये अपने मोहल्ले - पड़ौस के बच्चों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। उनके माँ -बाप के प्रति हेयता का भाव इनके मन में कुलबुलाता रहता है। इस प्रकार काले अंग्रेजों का एक नया वर्ग तैयार किया जा रहा है।

               हमारी मातृभाषा में ही हमारे संस्कार , सभ्यता, संस्कृति , रहन -सहन , वेश आदि निवास करते हैं। जब भाषा को कृत्रिम रूप से बदला जाता है, तो हमारा सब कुछ बदलने लगता है। भले ही हमारी दशा घोड़ों के बीच गधों की बन जाये, पर अपने अहम में हम इतने फ़ूल जाते हैं , कि पास की चीज दिखाई ही नहीं देती। सावन के अंधे को हरा ही हरा ही दिखता है।

               हर वर्ष 14 सितंबर को हिंदी -दिवस का आयोजन किया जाता है। चाहे इसे केवल रस्म -अदायगी ही कहिए , पर वह भी अंग्रेज़ियत के बिना पूरी नहीं होती। कुछ अंग्रेज़ीदां लोग कुछ इस तरह भाषण करते हुए भी देखे जाते हैं: ' आज 'हिंदी-डे' है । हम लोग 'इंडियन 'हैं , इसलिए इसको 'सेलिब्रेट ' करना हमारी 'ड्यूटी 'है। हिंदी हमारी 'मदर - टँग 'है। वैसे तो आज अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है , पर 'मदर टँग' होने के कारण इसकी 'स्टडी' भी हमें करनी चाहिए। आज पूरे 'वर्ल्ड 'में अंग्रेज़ी ही प्रमुख भाषा है , पर अपनी 'मदर -लेंग्वेज 'को भी पढ़ना -पढ़ाना हम 'इंडियंस 'के लिए 'कम्पलसरी 'है।' हमारे अंग्रेज़ीदां नेता और कुछ बनतू लोग इसी प्रकार भाषा के खच्चरपन के हिमायती हैं। यह भाषा का खच्चरपन हिंदी में कुछ ज्यादा ही बढ़ता जा रहा है। देश वासियों की गुलाम मानसिकता और अधिक गुलामी की ओर अपने कदम बढ़ा रही है। आज तथाकथित अत्याधुनिक माँ -बाप बच्चों की गिटपिट सुनते हैं ,तो सिहाते हुए आपे में नहीं समाते। उन्हें जूते को 'शू ' कहने में गर्व का अनुभव होता है। हाई - स्कूल उत्तीर्ण माताएं ,जिन्हें हिंदी की पूरी वर्णमाला भी नहीं आती , वे बच्चों को घर और स्कूल में इंग्लिश टीचर के पद पर बैठी हुई ' ए' फ़ॉर ऐप्पल, की शिक्षा देती हुई देखी जा सकती हैं। संस्कार और सभ्यता का जनाजा ही निकाल दिया जा रहा है। निश्चय ही देश का भविष्य बिना अपनी मातृभाषा के उज्ज्वल नहीं है। जब तक इस देश की मानसिक गुलामी दूर नहीं होगी। हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा का भविष्य उज्ज्वल होने में संदेह ही रहेगा।
 💐 शुभमस्तु !
 ✍लेखक ©
🏕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'



         

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