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सागर
कितना गहरा !
किन्तु मिला करते
मुक्ता मणि
गहराई।
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मोती
तट पर
पाए हैं किसने ?
गहरे पानी
पैठ।
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पसीना
बहता है
श्रम सीकर बन
महक - महक
जाता।
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चाहता
नहीं श्रम
तन मन से
वह युवा
नहीं।
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खून
चूसता उनका
जिनमें हड्डी शेष
इंसान नहीं
वह।
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मर्यादा
अपने भी
हाथों में होती
पहले रक्षक
हम।
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पिपीलिका
चढ़ती जाती
पर्वत की चोटी
धीरज महान
है।
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गाल
बजाना सहज
करके दिखलाना नहीं
कौन सोचेगा
इतना।
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झूठ
सीखना पड़ता
करके कोशिश भारी
सायास बना
झूठ।
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सत्य
सरित धारा
बहती है स्वतः
अविरल अनायास
अविराम।
💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '
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