रविवार, 22 सितंबर 2019

चश्मा-टेक-स्थान

 [ हास्य -व्यंग्य ]

              भगवान भी कितना बड़ा कारसाज़ है। आख़िर भगवान तो भगवान ही है। शरीर के एक अंग के निर्माण और भगवान की दूरदर्शिता पूर्ण सोच का परिणाम ही है हमारी 'नाक'। इसकी रचना औऱ उसके बहुउपयोगी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए ही इसको स्थापित किया गया है।

           जब पहले पहल भगवान ने इंसान को बनाया होगा , उस समय उसने यह भी सोच रखा होगा कि भविष्य में इस इंसान का विकास जब होगा तो उसकी आँखें टी. वी. , कम्प्यूटर , मोबाइल पर इतनी अधिक व्यस्त हो जाएँगीं कि उसकी देखने की क्षमता में अवश्य कमी आएगी। उसके समाधान के लिए वह चश्मे की खोज जरूर करेगा। जब उस चश्मे को टेकने के लिए ही जगह नहीं होगी तो चश्मा भला लगेगा कहाँ और कैसे? इसलिए चेहरे के केंद्रीय स्थल पर एक उभरा हुआ टेक- स्थान बनाया जाना अपरिहार्य समझा गया और उसका नाम रख दिया गया 'नाक' । उसमें साँस के आवागमन के लिए दो छिद्र भी बना दिए गए। उस का जो ऊँचा प्लेटफार्म बनाया गया ,वही चश्मे का टेक - स्थान बना। अब जब नाक बन गई तो यह भी गम्भीरता पूर्वक सोचना पड़ गया कि चश्मे की डंडियाँ कहाँ टेकी जाएँगीं , यह सोचकर पुनः दो डंडी -टेक -स्थान भी निर्मित किए गए , जिन्हें 'कान'की संज्ञा से अभिहित किया गया। इस प्रकार चश्मे की जरूरत की पूर्ति का काम पूर्ण हुआ।नाक और कान चूँकि दोनों ही 'चश्मा- टेक- स्थान ' हैं , इस- लिए मात्राओं को उसी स्थान पर बनाये रखते हुए 'न' औऱ 'क' को ही दोनों टेक -स्थानों के लिए अंतर करने के उद्देश्य से उनका नामकरण हुआ : नाक और कान। तभी एक कहावत का जन्म हुआ : आवश्यकता अविष्कार की जननी है। चश्मे के आविष्कार ने नाक के उच्च सिंहासन की शोभा सैकड़ों गुणा बढ़ा दी।

                नाक तो नाक ही है । इसका एक अर्थ स्वर्ग भी होता है। यदि विचार किया जाए तो स्वर्ग से क्या कम है, नाक । नाक के बिना साँस लेना ही दूभर। इसलिए इस नाक से अनेक स्वर्गवाची शब्दों का सृजन हो गया। 'नाकपति 'अर्थात राजा या इंद्र। 'नाकनाथ' , 'नाकपेधक' इंद्र को कहा गया।'नाकचर ' अर्थात जो नाक(स्वर्ग), में विचरण करे अर्थात देवता। नाकचर के एक अन्य अर्थ में देखा जाए तो भी देवता। क्योंकि देवता नाक से ही चरते (भोजन ,सुगन्ध आदि ग्रहण करते हैं ) हैं।इसीलिए उन्हें धूप ,अगर , लोहबान आदि की सुगंध से तृप्त किया जाता है। देवता खाते कहाँ हैं , सूँघते भर हैं। भला जो 'नाक बुद्धि' हैं ,वे ये सब कहाँ समझें ? क्योंकि उनकी बुद्धि नाक तक ही सीमित होती है। नाकपति और नाकचरों को खाने का समय कहाँ? क्योंकि उन्हें 'नाकनटियों' (स्वर्ग की नर्तकियों) और 'नाकवनिताओं'(अप्सराओं) के नृत्य औऱ विलास से अवकाश ही कहाँ मिलता होगा। 'नाकनारियों' के जमघट से घिरे 'नाकपति' फिर भी अतृप्त ही बने रहते हैं । 'नाकवासियों' का यह परम सौभाग्य है कि वे निरन्तर 'नाक नदी'(स्वर्ग की गंगा) में अभिषिक्त होते रहते हैं।

            अब रही दूसरे टेक -स्थान 'कान' की बात। कान का स्थान ऊँचा होने के बावजूद नाक का स्थान ऊँचा माना गया : (नाक बास बेसरि लह्यो ) और कानों में पहने जाने वाले कुंडल भी वह स्थान प्राप्त नहीं कर सके:(अजों तरयौना ही रह्यौ)।इसलिए 'नकबेसर' या 'नाक बेसर' नामक नाक का आभूषण आविष्कृत हुआ। उधर नाक की नथुनिया ने तो गज़ब ही कर डाला , कान का आश्रय लेकर उसने नारी चन्द्र - वदन पर कब्ज़ा ही कर लिया। कान फिर भी उपेक्षित रह गए। इसी को शायद किस्मत कहते होंगे।

             द्विनामी तीन टेक-स्थानों के कारण चश्मा अपना आसन जमा कर क्या बैठा , उसने नाक के नाकपन में बहुआयामी सफ़लताओं के झंडे ही गाड़ दिए! कालांतर में नाक मान - सम्मान औऱ प्रतिष्ठा का पर्याय ही बन गई।तभी तो रावण की नाक उसकी बहन सूर्पणखा बन गई और लक्ष्मण जी ने अग्रज श्रीराम जी पर डोरे डालने के कारण उसकी कीमत उसे अपनी सुंदर नाक ही कटवाकर अदा करनी पड़ी। उस नाक -कटान अपमान के प्रतिशोध- रूप श्रीरामजी की भार्या सीताजी के अपहरण के रूप में कहानी और भी जटिल हो गई , जिसका समापन राम - रावण युद्धोपरांत , धोबी प्रकरण और सीता जी के भू लीन हो जाने के रूप में संसार ने देखी।ये सब हुआ तो नाक के कारण ही न! ये नाक ही है , जो क्या - क्या न करा ले! महाभारत भी नाक के कारण ही हुआ । जिसने भी अपनी नाक नीची होते देखी , उसने दूसरे की काटने के लिए महा भारत ही करवा दिया। वहाँ भी नाक , यहाँ भी नाक ! जहाँ भी देखा नाक ही नाक। सब कुछ बखेड़ा नाक के ही कारण। कहीं नाक नीची न हो जाये। अरे ! कभी -कभी तो चाहे अपनी ही नाक क्यों न कट जाए , पर दूसरे का शगुन तो बिगड़े ही बिगड़े। अब मालूम हुआ कि महाभारत इस 'चश्मा- टेक -स्थान' :नाक के कारण ही हुआ था।

 💐शुभमस्तु !
 ✍लेखक ©
🧡 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'



    

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