शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

दृश्यावली [ अतुकान्तिका ]



दूध नहीं
दे सकता 
कोई गधा,
उसका काम है
पूर्व निर्धारित
बँधा - सधा,
नहीं ढो सकती
पीठ पर बोझा,
कोई गाय,
है भी नहीं
कुछ उपाय।

बिच्छुओं से
 देश की सेवा ??
माटी ही है 
भक्ष्य जिन्हें
प्रिय मेवा!
दंशन ही धर्म
सत्कर्म जिन्हें,
कैसी आशा ?
 किस विश्वास की
झोली  भरें!!

मोर के पंखों पर
प्राकृतिक हैं
अन - देखती आँखें,
कोशिशें व्यर्थ हैं
सभी उनसे
वे चाहे 
जितना भी झाँकें!
दृष्टिहीनता है
 वहाँ क़ुदरती,
नृत्य के क्षणों में
वही जड़ आँखें
नृत्य भी करतीं!
पर बनाना 
व्यर्थ है,
ऐसी कृत्रिम 
आँखों की रचना ,
वह हैं
प्रकृति की
सुरम्य संरचना!!

आया जो यहाँ
जिस काम,
नहीं होता है
उससे  कुछ और,
विभाजित हैं कर्म,
आवंटित हैं धर्म,
कहें उनको
कर्म या सुकर्म,
यही है सृष्टि का
अनबूझ मर्म।

जौंक है
परिजीवी परिपोषी ,
बना रहे कोई
कितना भी  रोषी,
वही करना है उसे
जीना भी
उसी शैली में,
रक्त -आपूर्ति 
जिसे करनी है
उदर की झोली में,
वही है
उसका जीवन,
चुपके से 
चूस लेना ही
कर्म -पथ - उपवन।

इंद्रधनुष को
किसने छुआ है!
नेत्र -दृष्टि का
मात्र  वह हुआ है!
वह  है 
मनोरम कितना।

सप्त रंगों का संगम,
निश्चित अनुपात
निश्चित ही अनुक्रम,
प्रकाश और जलबिन्दुओं का
दृश्य  
मनोहर  सुरम्यतम,
नहीं आकाश नीला
पर सुदृष्ट है,
उसकी सुदृश्यता ही
'शुभम 'है
इष्ट है,
आशा और विश्वास के
सद्ग्रन्थ का
खुला हुआ है,
सु पृष्ठ है।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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