शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

चर्चा ;चोली-दामन [ व्यंग्य]

              हज़ारों लाखों वर्षों से नहीं , युग -युग से राम, कृष्ण, स्वामी विवेकानंद जैसे लाखों संत , ,महात्मा, वेद , पुराण , रामायण, महाभारत , बाइबिल , कुरान अनगिनत धार्मिक -युग-पुरुष , युग -नारियाँ और पवित्र ग्रन्थ, मनुष्य का नैतिक विकास और उद्धार के लिए अपने सत्प्रयासों से लगे रहे ।आज भी लगे हुए हैं।किंतु आज भी हम मानवीय नैतिक विकास से संतुष्ट नहीं हैं।ज्यों -ज्यों दवा की , त्यों -त्यों मर्ज़ बढ़ता गया :वाली स्थिति बनी हुई है। आज भी बेचारे कितने संत -पुरुषों और महानारियों ने मानव -जाति के उद्धार के लिए क्या कुछ नहीं किया ? बड़े -बड़े आश्रम बनाये गए, जिनमें ए सी , आराम , करोड़ों के वैभव -विलास की चकाचोंध के बीच रात -दिन वे लगे हुए हैं। कुछ तो इतने अधिक आगे बढ़ गए कि बढ़ते - बढ़ते कारागार का विकास करने लग गए।जो सत्संग आश्रमों के मादकता पूर्ण यौवन और सौंदर्य की छाँव में हो रहा था , अब कारागार की शोभा बढ़ा रहा है। राम -राम करते -करते कब काम की आरामगाह में आसीन हो गए , पता ही न चला। धर्म और अध्यात्म की यह विकास यात्रा बहुत लंबी है। इसके बावजूद आज भी इंसान विकास के लिए तड़प रहा है।

                  इस देश की यह पवित्र परम्परा रही है कि अपना बचाव करते हुए दूसरों का सुधार करो। उन्हें ज्ञानोपदेश दो, धार्मिक ग्रन्थों में लिखी बातों के पालन के लिए प्रेरित करो।लेकिन यह ध्यान रखना बहुत ही जरूरी है कि स्वयं कभी भी भूलकर अपने बताए हुए या धार्मिक ग्रंथों में लिखे हुए मार्ग पर मत चलना। यदि चले , तो तुम्हें कोई धर्मात्मा नहीं कहेगा। सदैव गेरुआ , माला ,छाप, तिलक के आवरण के नीचे छिपकर रखना होगा। सुरा-सुंदरी का सेवन पर्दे के पीछे अनिवार्य है, क्योंकि वे ही तो तुम्हारी साधना के वाहक और संचालक सिद्ध होंगे। धर्म की रहस्य साधनाएं ऐसे ही हुआ करती हैं।

                      क्या हुआ यदि धर्म के नाम पर दुनिया को खून की नदियों को पार करना पड़ा। शायद इतना नर -संहार तो महाभारत के महासंग्राम में भी नहीं हुआ , जितना धर्म के नाम पर किया गया। कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है। धर्म की चरम अवस्था का ही परिणाम है कि आज मंदिर और धर्म स्थल रंगरेलियों के प्रमुख केंद्र बन गए हैं। इससे सुरक्षित स्थान और हो भी कहाँ सकता है? एकांत भी और शक -संदेह की नज़रों से भी सर्वथा दूर। यह हमारी धार्मिक उन्नति का एक पहलू भर है। यदि औऱ अधिक गहराई में उतरा जाए ,तो मुक्ति के मोती मिलने में कोई संदेह ही नहीं ।

                    धर्म के बाद यदि मानव - विकास और उद्धार का सबसे सशक्त माध्यम है तो वह है राजनीति। इसमें भूमिका अदा करने वाले लोग नेता कहलाते हैं , किन्तु वे नेता कम अभिनेता अधिक होते हैं। नेता और राजनीति का चोली- दामन का साथ है। राजनीति यदि चोली है तो नेता दामन है।इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह दामन कितना गंदा या साफ़ है। क्योंकि उसके ऊपर तो झकाझक सफ़ेद बुर्राक सूट धारण कर लेते हैं।जैसे घूरे पर पानी का छिड़काव करके , कनातें लगाकर ज्यौनार करा दिया जाता है , तो कोई भी बाराती नाक -भों नहीं सिकोड़ पाता। यही स्थिति राजनीति रूपी चोली की है, जिसमें चोर , डाकू, फूल देवी, फूल बाई, गबनी , हिजड़े, गिरहकट , अभिनेता , अभिनेत्री , नर्तकियाँ आदि घुस कर देश के विकास का प्रण कर लेते हैं। दलों के कपड़े ऐसे बदलते हैं , जैसे नहाने के बाद अलग कपड़े, आराम के अलग कपड़े, लंच के अलग , डिनर के अलग । सुबह एक दल में नाश्ता हो रहा है तो लंच की थाली किसी और दल में दाल मखानी के साथ हो रही है ।और रात को डिनर का शाही पनीर किसी अन्य की केंडल लाइट की मद्धिम -मद्धिम रौशनी में किया जा रहा है।


                      वास्तव में देश का विकास भी एक दल में जड़ होने से होने वाला नहीं है। गंगा गए तो गंगादास , जमुना गए जमुनादास। गतिशीलता ही विकास की पहचान है। गतिशीलता हो तो राजनेताओं जैसी।यही तो देश के वर्तमान हैं , भविष्य हैं। भूत तो स्वतः हो ही जाएँगे।

                     देश के विकास के लिए आम की तरह पिलपिली बुद्धि के लोगों की आवश्यकता है। ये नए लौंडे - छोरियाँ क्या जानें कि राजनीति किस चिड़िया का नाम है? इसीलिए उनका ध्येय पार्टी के झंडे में लिपट कर श्मशान जाने का होता है। होना भी चाहिए , जब उन्होंने उसी के बैनर तले इतना विकास किया कि स्विस बैंक में भी जगह कम पड़ गई , तो क्या उस पार्टी के अहसान फ़रामोश हो जायें ? उसी ने तो उन्हें सब कुछ दिया है न! उनका विकास भी देश का विकास है। क्योंकि वे भी तो इसी देश के नागरिक हैं।आत्म-विकास ही देश का विकास है।

                  धर्म चाहे राजनीति में अतिक्रमण करे या न करे , लेकिन देश के सर्वांगीण विकास के लिए राजनीति का प्रवेश प्रत्येक क्षेत्र में ज़रूरी है।इसलिए आज समाज , शिक्षा , विज्ञान,    भूगोल , खगोल , इतिहास, साहित्य , कला, धर्म , अध्यात्म सभी में राजनीतिक 'सुगंध' प्रसारित हो रही है। परम -आत्मा की तरह सब में    'मान न मान मैं तेरा मेहमान' बनकर बलात घुस ही पड़ी है। जब घुस ही गई है , तो आप उसके लिए ज़्यादा कुछ नहीं तो एक पीढ़ा तो डालेंगे ही। कैसे नहीं होगा भला देश का विकास! वे करके ही छोड़ेंगे। जब धर्म नहीं कर सका तो राजनीति से कैसे बचकर जाएगा? यह देश की राजनीति ही है कि आज हम चंद्रयान से चन्द्रमा की सैर कर रहे हैं। इसमें विज्ञान और वैज्ञानिकों का क्या योगदान ? सब कुछ राजनीति से आसान। आगे -आगे देखिए होता है क्या ?
 💐 शुभमस्तु !!
 ✍ लेखक ©
 🕸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
 www.hinddhanush.blogspot.in

  

         

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...