रविवार, 8 सितंबर 2019

पता नहीं क्यों ! [ अतुकान्तिका ]

     


पता नहीं क्यों 
मुझे सुहाते !

वन में विचरण
नदियाँ झरने
ऊँचे पर्वत ,
सघन झाड़ियाँ,
लदी हुई फूलों से
कुछ शूलों से
उलझी बेलें!

पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते!

ऊँची -नीची धरा
खार -गड्ढे  या टीले,
छोटी -बड़ी पहाड़ी,
वन के जीव 
हिरण खरगोश
नीलगायें सरीसृप,
पिचकाँकरी,
गुल काँकरियाँ,
गिलहरे,
वन फल -फूल
महकते,
बिखरती सुषमा
उनकी प्राकृतिक!

पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते!

बैठ किनारे 
झरने के 
लहरों का चलना,
मछली मेढक
कछुओं का
जल- बीच उछलना,
चिड़ियों का 
चहचह स्वर,
सरिता का 
कलरव मधुर !

पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते!

कीकर के पेड़ों से
पीला गोंद तोड़ना,
ले -ले स्वाद 
चूसना 
मुँह भीतर,
खट्टी -मीठी
गुलकाँकरियों को
हरी लता से तोड़ चूसना !

पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते !

चलते - फिरते
वन के पथ में
रुक जाने का
आग्रह करती 
शल्य -झाड़ियाँ,
उलझ गईं जब
वसन में मेरे,
मानो कहतीं:
'कैसे कहें
वेदना अपनी
तुम तो समझो,
कर्म किए  हैं
कैसे हमने ?
जो राही के 
पथ में बाधा
डाल रही हैं!'

पता नहीं क्यों 
मुझे सुहाते !

शांत स्वच्छ
बह रहा पवन,
निर्मल जलधारा
देखभाल करती 
नित प्रति ही प्रकृति!
कौन हमारा
नहीं बनावट ,
कहीं सजावट -
नहीं हमारे 
प्राकृत वनजीवन में,
देख सुबह
सूरज का गोला ,
कलियाँ खिलतीं
चिड़ियाँ उड़तीं
चुगती कण -कण!

पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते !

शहरों के ये
मानुष-जंगल,
कल -बल ,
छल -बल ,
भुज -बल ,
धन -बल,
कंकरीट के
भीषण जंगल!
मन वालों पर
मन का अभाव है!
आम आदमी का
बस यह स्वभाव है,
झूठ सजावट,
मात्र बनावट,
नहीं बया -सी
कहीं बुनावट,
शोर बहुत 
पर सूने पनघट,
सुगबुगाहट में
मरते मरघट,
दूर प्रकृति से
रुग्ण नारि -नर,
विकृत मन - का
चिड़ियाघर!

पता नहीं क्यों
नहीं सुहाते !!

शुभमस्तु  !
✍रचयिता ©
 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '

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