पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते !
वन में विचरण
नदियाँ झरने
ऊँचे पर्वत ,
सघन झाड़ियाँ,
लदी हुई फूलों से
कुछ शूलों से
उलझी बेलें!
पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते!
ऊँची -नीची धरा
खार -गड्ढे या टीले,
छोटी -बड़ी पहाड़ी,
वन के जीव
हिरण खरगोश
नीलगायें सरीसृप,
पिचकाँकरी,
गुल काँकरियाँ,
गिलहरे,
वन फल -फूल
महकते,
बिखरती सुषमा
उनकी प्राकृतिक!
पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते!
बैठ किनारे
झरने के
लहरों का चलना,
मछली मेढक
कछुओं का
जल- बीच उछलना,
चिड़ियों का
चहचह स्वर,
सरिता का
कलरव मधुर !
पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते!
कीकर के पेड़ों से
पीला गोंद तोड़ना,
ले -ले स्वाद
चूसना
मुँह भीतर,
खट्टी -मीठी
गुलकाँकरियों को
हरी लता से तोड़ चूसना !
पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते !
चलते - फिरते
वन के पथ में
रुक जाने का
आग्रह करती
शल्य -झाड़ियाँ,
उलझ गईं जब
वसन में मेरे,
मानो कहतीं:
'कैसे कहें
वेदना अपनी
तुम तो समझो,
कर्म किए हैं
कैसे हमने ?
जो राही के
पथ में बाधा
डाल रही हैं!'
पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते !
शांत स्वच्छ
बह रहा पवन,
निर्मल जलधारा
देखभाल करती
नित प्रति ही प्रकृति!
कौन हमारा
नहीं बनावट ,
कहीं सजावट -
नहीं हमारे
प्राकृत वनजीवन में,
देख सुबह
सूरज का गोला ,
कलियाँ खिलतीं
चिड़ियाँ उड़तीं
चुगती कण -कण!
पता नहीं क्यों
मुझे सुहाते !
शहरों के ये
मानुष-जंगल,
कल -बल ,
छल -बल ,
भुज -बल ,
धन -बल,
कंकरीट के
भीषण जंगल!
मन वालों पर
मन का अभाव है!
आम आदमी का
बस यह स्वभाव है,
झूठ सजावट,
मात्र बनावट,
नहीं बया -सी
कहीं बुनावट,
शोर बहुत
पर सूने पनघट,
सुगबुगाहट में
मरते मरघट,
दूर प्रकृति से
रुग्ण नारि -नर,
विकृत मन - का
चिड़ियाघर!
पता नहीं क्यों
नहीं सुहाते !!
शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें