गुरुवार, 18 जुलाई 2024

सावन के अंधे [अतुकांतिका]

 315/2024

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सड़क पर चलते,

या बाजार में मिलते,

सामान्य से नर - नारी

इन्हें एकदम नहीं भाते,

समाज कहाँ जा रहा है?


पति तक तो ठीक है

वह पालक है इनका,

पर किसी अन्य से घृणा

कोई उचित तो नहीं,

इनका अहंकार इठला रहा है।


चकाचौंध धन की

इनकी आँखें चुँधियाती है,

इन्हें कोई गरीब नहीं दिखता

सावन के अंधे को

हरा ही हरा 

नज़र आता है,

समाज नाश की नदी में

समा रहा है।


क्या हो गया

अमीर औलादों को,

खासकर बालाओं को

गरीब से ,गरीबी से

इतनी घृणा क्यों?

विष वमन बहका रहा है।


अपनी इच्छा से

कोई गरीब नहीं होता,

क्या कोई चाहता है ऐसा?

किन्तु प्रारब्ध का सब खेल,

मनुष्य हो 

मनुष्य की तरह रहो,

आदमी की आदमी से

कोई घृणा बिलकुल न हो।


यथासंभव 'शुभम्'

सबके सहायक बनो,

हाड़ माँस के बिजूके

इतने भी न तनो!

जो पाप की गठरी तले

मत लादो मिट्टी यों मनों,

सब कुछ माटी है

माटी में ही मिल जाना है।


शुभमस्तु !


18.07.2024● 3.00प०मा०

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