322/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
ढूँढ़ रहा
कचरे में रोटी
बचपन ये नौ-दस साल ।
दाँत दूध के
अभी न टूटे
बे-घरबार न अपना नीड़।
कब वसंत
आया कब निकला
उसे निरर्थक जन की भीड़।।
संवेदना
मर चुकी जन की
सिकुड़ गई बचपन की खाल।
धन्ना सेठ
दया के सागर
खिंचवाते फोटो दो चार।
नहीं पेट में
जाती रोटी
जननी जनक पड़े बीमार।।
अखबारों में
खबर छपाते
ऐसे हैं भारत के लाल।
तन पर लदे
चीथड़े मैले
हर दर पर मिलती दुतकार।
बदतर है हालत
ढोरों से
बचपन गया अभी से हार।।
'शुभम्' योनि
मानव की ऐसी
मिले न सूखी रोटी -दाल।
शुभमस्तु !
26.07.2024●9.30आ०मा०
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