बुधवार, 17 जुलाई 2024

ग़ज़ल

 309/2024

                   


     ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कभी   मैं  स्वर्ग में  होता  कभी मैं नर्क   ढोता  हूँ।

जहाँ की इस जमीं पर ही हुआ  मैं  गर्क खोता हूँ।।


कभी मुस्कान है लब पर कभी हैं अश्क आँखों में,

करनियों  के हमेशा श्वेत  काले  बीज  बोता    हूँ।


नहीं    है    आसमां  में बनी  कोई  कहीं    जन्नत,

यहीं   पर   है  सभी   कुछ लगाता गंग -  गोता  हूँ।


आदमी  के कर्म का अंजाम सबको भोगना पड़ता,

दूसरों को दोष  दे देकर  स्वयं दामन मैं   धोता  हूँ।


बताता  हूँ  मिया  मिट्ठू  पहन कर बगबगे  कपड़े,

समझता  हूँ खुदा ख़ुद को रुलाता हूँ न   रोता   हूँ।


दिलों में आग जलती है किसी की देखकर हशमत,

हुआ  मैं  ढोर से  बदतर जगा होता भी  सोता  हूँ।


'शुभम्'     हे   रब     बचाना    पाप   से   मुझको,

हक़ीक़त   है  कि  इंसां हूँ नहीं कुछ  और  होता हूँ।


शुभमस्तु !


15.07.2024● 4.15प०मा०

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