300/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
तन सूखा
मन लगा नहाने
बरस रहे आषाढ़ी बादल।
साठ बरस
पहले अतीत में
पहुँच चुका है ये मेरा मन।
देह उघाड़े
जाऊँ बाहर
बरस रही हैं बुँदियाँ सन-सन।।
भीग गया हूँ
मैं अंतर तक
गली पनारे बहते छल-छल।
आ जाओ
मेरे हमजोली
कागज की हम नाव चलाएँ।
भीगें और
भिगोएँ सबको
रपटें गिरें - उठें रपटाएँ।।
डाँट रहे हैं
अम्मा दादी
पहनें कपड़े यही एक हल।
देखो उधर
गगन में चमका
इंद्रधनुष मनहर सतरंगी।
आँखों को
वह बहुत लुभाता
कहते हैं सब साथी-संगी।।
बहते नाले
नदियाँ सड़कें
खेतों में जल बहता कलकल।।
शुभमस्तु !
06.07.2024●12.45 प०मा०
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