शुक्रवार, 13 मई 2022

वरयात्रा' बनाम 'रवयात्रा' 🎺 [ व्यंग्य ]

 

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 ✍️ व्यंग्यकार ©

 🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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  आधुनिक युग में यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि 'स्वार्थ' किसे कहते हैं। किस चिड़िया का नाम है -'स्वार्थ'। भले कोई इसकी परिभाषा नहीं जानता हो ;किंतु उसका व्यवहारिक रूप उसके दैनिक जीवन का प्रमुख अंग है।वह अच्छी तरह इसे अपने दैनिक जीवन का व्यवहारिक रूप बनाए हुए है।

            किसी भी 'स्वार्थ' के दो रूप देखे जा सकते हैं। पहला 'एकल' या 'व्यक्तिगत' रूप है तो दूसरा 'समवेत' ,'सामाजिक' अथवा 'सामूहिक' रूप है। 'एकल स्वार्थ' से भरा हुआ आधुनिक संसार का एक - एक व्यक्ति इसका अति अद्भुत नमूना है। ''मैं न दूँ काऊ ,अकेला बैठ खाऊं।'' इसी लोकोक्ति सूत्र का अनुसरण संसार का मानव करता हुआ अपनी देश सेवा,समाज सेवा,जगत सेवा और जीव सेवा की डुगडुगी पीटता हुआ दिखाई दे रहा है। जिसके प्रमाण पत्र बनाने के लिए वीडियो बनाना, अखबार में खबरें छपवाना, सोशल मीडिया पर प्रेषित करना वह कभी नहीं भूलता।

        जब बात 'समवेत स्वार्थ' की होती है ,तो इसका सबसे सशक्त उदाहरण आधुनिक वरयात्राओं में देखा जा सकता है। वर के साथ उसका विवाह करवाने के लिए जाने वाले लोगों की यात्रा 'वरयात्रा' अथवा बारात कहलाती है। किंतु इस वरयात्रा के नब्बे प्रतिशत से भी अधिक यात्रियों का वर के विवाह से कोई लेना - देना नहीं होता।उनका लक्ष्य केवल औऱ केवल अपनी उदर - पूर्ति करके उल्टी दौड़ लगाना होता है। तरह - तरह के सुस्वादु व्यंजनों से भरी हुई लड़ामनियों पर सुस्वादु भोजन का आनन्द लेने के बाद अपने अथवा दूल्हे के पिता द्वारा प्रायोजित वाहन से सीधे घर आकर सोना ही उनका उद्देश्य है। वे चाहे इष्ट मित्र हों, मोहल्ले वाले हों, दूर के रिश्तेदार हों अथवा ब्यौहारी लोग , सब 'खाये औऱ भागे ' की दौड़ के प्रतियोगी प्रतीत होते हैं। रव करते हुए जाना और रव करते हुए भागे चले आना : बस इतनी सी बात है।वर का संग देना या उसे जीवन के नए अध्याय को पढ़ने का पाठ पढ़ाना किसी का भी काम नहीं होता। फिर ये कैसी 'वरयात्रा'? इसे यदि 'रवयात्रा' कहा जाए तो बेहतर है।भावी हसबैंड के साथ बैंड का रव ,बारातियों का खाऊं- खाऊं रव, डी जे का धमाधम रव ,शराबियों औऱ कुछ नचनियों का नृत्य रव, सर्वत्र रव ही रव। 

       आज के आदमी की यह सामूहिक स्वार्थवृत्ति की ऐसी जीवंत कहानी है ,जिसके लिए सारा समाज मौन है। समाज को सुधरना ही नहीं है ,तो कोई समाज सुधारक क्यों आगे आए! बेचारों के पास खाने के लिए समय तो है ,पर जिसकी 'वरयात्रा' के यात्री हैं ,उससे कोई मतलब नहीं ! 'समवेत स्वार्थ' की पराकाष्ठा है ये। इससे तो अच्छा है कि जितने लोग वर के साथ जनवासे में शेष रह जाते हैं,उन्हें छोड़कर किसी को भी नहीं बुलाया जाए।वर का पिता ,भाई, जीजाजी ,फूफाजी औऱ एक दो इने -गिने इष्ट मित्र ;और बस। क्यों व्यर्थ में लड़की वाले के धन ,भोजन औऱ अन्य सामान का अपव्यय किया जाए।ये कैसा 'ब्यौहार' कि खाये और भाग लिए! स्वार्थ की पराकाष्ठा का अद्भुत नमूना।

           मनुष्य की सामाजिकता की विलुप्ति यदि कहीं देखनी हो ,तो इन 'वरयात्राओं' में नहीं, इन 'रवयात्राओं' में देखिए। इनसे तो पशु -पक्षी ही बेहतर हैं। ऐसी विचित्र ढोंगी आधुनिकता औऱ स्वार्थवृत्ति के भविष्य का रब ही मालिक है। प्रदर्शन का ढोंग इन 'रवयात्राओं' के लिए पूर्णतः उत्तरदायी है।धन, धनाढ्यता और धनान्धता के दिखावे का 'व्यवहार' इस खोखले यात्राचार का कारण है। आदमी इतना गिरेगा ,सोचा भी न था। लेकिन अभी पूरी तरह गिरा कहाँ है ! बस देखते रहिए कि कितना नीचे जाता है। रसातल में तल नहीं होता।


 🪴 शुभमस्तु ! 


 १२.०५.२०२२ ◆ १०.०० पतनम मार्तण्डस्य।


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