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✍️ शब्दकार ©
👫 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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सड़कों पर
गलियों बाजारों में
ट्रेनों बसों हवाई जहाजों में
घरों होटलों बारातों में
आदमीनुमा ढाँचे
घूमते टहलते खड़े बैठे
सोते जागते झगड़ते
मिल जाएंगे,
वे आदमीनुमा तो हैं,
किन्तु क्या आदमी भी हैं?
यह एक ज्वलंत प्रश्न है।
आदमीयत
कोई और चीज है,
जो आदमीनुमा ढाँचे को
आदमी बनाती है,
जब वही नहीं
तो आदमी क्या?
औऱ क्यों?
बस ऐसे ही है
कपड़े की दुकान पर
निर्जीव खड़े हुए
आदमी औरत,
खजुराहो के मंदिरों की
बनी पाषाण प्रतिमाएं!
क्या इनसे आदमियत की
कुछ उम्मीद लगाएं?
ऐसे ही बहुत से लोग
एक ढाँचे में धरती पर
आते हैं,
और चले जाते हैं!
जैसे चिड़ियाघरों में
घूमते हुए शेर, चीते ,भालू,
किसान के खेत में
ढेर सारे टमाटर ,आलू!
आदमियत कहाँ शेष
रही है पुतिनों में,
जहर पिला रही
दूध वाली पूतनाओं में!
'आम' को रात दिन
चूस रहे कुर्सी नसीनों में?
मर चुका है
जिनकी आँखों का पानी,
सजी हुई हैं आज
उन्हीं से राजधानी,
यही तो खोज करें
अनुसंधानी ,
क्या आदमी है
इसका सब मानी?
आदमी बस
कुछ ही शेष हैं,
आदमेतरों से भिन्न
देखो वे
पीछे- पीछे जा रहे
झुंडों में मेष हैं,
बस वे
आदमी के ढाँचे में हैं!
🪴 शुभमस्तु !
२०मई २०२२◆ १०.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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