मंगलवार, 24 मई 2022

झूठे पड़ते हुए मुहावरे 📲 [ व्यंग्य ]

 

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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     रेलगाड़ी अपनी तेज गति से आगे बढ़ती हुई जिस प्रकार पेड़ - पौधों, शहरों ,गाँवों, शहरों और स्टेशनों को पीछे छोड़ती हुई आगे चलती चली जाती है, (यह अलग बात है कि वही गाड़ी पुनः लौटकर उसी पटरी पर आती भी है।और पुनः- पुनःउसी यात्रा पथ की पुनरावृत्ति भी करती है।) उसी प्रकार मानव -जीवन में प्रचलित अनेक मुहावरे पीछे छूटते जाते हैं औऱ समय की रेलगाड़ी पुनः नहीं लौटती ;इसलिए वे भी लौटकर नहीं आते। वे पूरी तरह झूठे पड़ जाते हैं। 

    आदमी के कभी चुप न बैठने की आदत को लेकर एक प्रचलित मुहावरा होता था ,क्या रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह किच -किच लगा रखी है! पर जब उस दिन मैं रेलगाड़ी में यात्रा पर लखनऊ जा रहा था, तो मुझे उक्त मुहावरा औंधे मुँह पड़ा हुआ पूर्णतः शांत पड़ा मिला। 

          बात सात मई 2022 की है। मुझे अपने बेटे के साथ युगधारा फाउंडेशन लखनऊ द्वारा एक बड़े अखिल भारतीय समारोह में आमंत्रित किया गया था ,जहाँ मुझे 'साहित्य शिरोमणि सम्मान:2020' (मानद) प्रदान किया जाने वाला था। पूर्व निर्धारित स्टेशन से पूर्व आरक्षित कोच में आवंटित बर्थ पर हम लोग आसीन हो गए।रेलगाड़ी अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थी। 

         सिसकते हुए नहीं ,दम तोड़ चुके मुहावरे को शांत मुद्रा में पड़े हुए देखा तो न जाने कैसे -कैसे भाव मनो मष्तिष्क में घूमने घनघनाने लगे। रेलगाड़ी का कोच रेलगाड़ी का न होकर घर का पूर्णतः शांत कक्ष लग रहा था।कहीं कोई चूं चकर नहीं थी,किसी को किसी की फिकर नहीं थी। किसी की किसी से किसी की जिकर नहीं थी।सब जागते हुए सोए जैसे मौन आसन में तल्लीन थे।कहीं कोई ध्वनि नहीं, छुन छुन्नन छुन भी नहीं।सभी के हाथ में जादू जैसी डिबिया सुशोभित हो रही थी।कुछ के कान में ढक्कन लगे हुए थे ,जिससे वे बाहर की नापसंद ध्वनियों से अनभिज्ञ थे।अपने - अपने अस्तित्व से सुविज्ञ थे। न कोई किसी से बतिया रहा /रही था/थी। न कोई हँस रहा था ,न रो ही रहा था। बस एक सन्नाटा पसरा हुआ था। जैसे किसी के घर में भयंकर खसरा हुआ था। न छोटे बच्चों की चिल्ल -पों, न फेरी वालों की हों- हों। हमारा तथाकथित मुहावरा दम तोड़ चुका था। 

    विश्व का आठवां आश्चर्य ये है कि स्टेशन पर बैठी हुई चार स्त्रियाँ शांत बैठी हुई थीं। पर यहाँ तो पूरे कोच में लगभग आधी से अधिक स्त्रियाँ ही थीं। पर वहाँ भी मुहावरे की कोई भी जिंदा होने की निशानी शेष नहीं थी। क्या पुरुष ,बालक,युवा ,किशोर, प्रौढ़ ,वृद्ध ! क्या किशोरियां, विवाहिताएं अथवा अविवाहिताएँ, सबका एक ही हाल था। ऐसा नहीं कि वह तथाकथित जादुई डिबिया मेरे और बेटे के पास नहीं थी, किन्तु वह हमारे पेण्टों की जेबों में कुछ भिन्न प्रकार से शांत पड़ी हुई थीं। वे किसी प्रकार की ध्वनि ,लय, संगीत आदि का निष्क्रमण नहीं कर रही थीं। 

              ये चर्चा तो मात्र एक मुहावरे की है। ऐसे न जाने कितने मुहावरे और कहावतें दम तोड़कर अत्याधुनिक टेकनोलॉजी की भेंट चढ़ चुके हैं। यह भी एक गंभीर शोध का विषय है।देखते- देखते पिछले बीस वर्षों से ही आदमी कितना आत्मकेंद्रित होकर कछुआ वृत्ति में अपनी लम्बी ग्रीवा को भीतर घुसेड़ चुका है। कानों पर ही नहीं,उसकी आत्मा, दिल औऱ दिमाग पर भी ढक्कन लग चुके हैं। वह जो देख रहा है , वह दर्शनीय है अथवा नहीं; यह कोई नहीं जानता।क्योंकि कोरोना की बीमारी की तरह मास्क के ढक्कन मुँह की तरह कहाँ नहीं लग चुके हैं ? आदमी कहाँ जा रहा है,किसी को कुछ भी नहीं पता। उसे अपना नहीं पता तो दूसरों का पता क्या जानेगा? इतना निश्चित रूप से सत्य है कि यह मानवीय भविष्य का सु- लक्षण नहीं है। असामाजिकता, आत्म केन्द्रीयता, आत्म संहार के ये पूर्व लक्षण कहाँ ले जाएँगे; अनिश्चित भविष्यत के गर्भ में है।

 🪴 शुभमस्तु !

 २४ मई २०२२■◆७.३० पतनम मर्तण्डस्य।


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