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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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हुआ आगमन जेठ का,बहुओं ने की लाज।
सिर ढँककर पथ में बढ़ीं,मर्यादा के काज।।
फागुन आए चैत भी,चले गए वैशाख,
गई जेठ के संग में,अरहर करती नाज।
जाती थीं बाजार को,खोल शीश निज केश,
अवगुंठित जूड़ा किया, देख जेठ का ताज।
सीमाओं को भंग कर,क्यों जाती है नारि,
जेठ आ रहे सामने,बदल देह का साज।
नहीं किया सम्मान जो,पत हो पतित अनारि,
मन ही मन तव जेठ जी,हो जाएँ नाराज।
सीमा सबकी है बँधी, सरिता, सिंधु, तड़ाग,
युग-युग से आया चला, मर्यादा का राज।
'शुभं' जेठ तो जेठ हैं,जनक जननि गुरुश्रेष्ठ
रविशशि मर्यादित सभी,राम कृष्ण ब्रजराज।
🪴शुभमस्तु !
१५.०५.२०२२◆६.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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