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✍️ शब्दकार©
🌀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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देश की जीवन - धाराएँ हैं
हमारी नदियाँ
अहर्निश अनवरत
बहते हुए
बीत गईं सदियाँ,
अभिसिंचन करतीं
कलकल करतीं,
पल को न ठहरतीं
भूतल पर लहरतीं
जीवन दे रहीं हैं।
गंगोत्री से गंगा
यमुनोत्री से यमुना
निरन्तर बहती रही
कहती रही
मत करो हमें दूषित
मत बहाओ गंदगी,
उपकारी की सदा ही
करती है
ये दुनिया वंदगी,
मानवता धर्म निभाओ,
पाशविकता से इतर जाओ,
हम जीवन दायिनी हैं।
आत्म स्तुति क्या करना?
कितनी सरिताएँ झील झरना
तुम्हारे लिए हैं,
अभिसिंचन
तृप्ति के स्रोत
पशु, पक्षी, पेड़ ,
पौधे, लताएँ,
समतल मैदान
ऊँची अधित्यकाएँ,
नीची उपत्यकाएँ,
समर्पित हैं
देश के लिए।
पिता पर्वत से
पिया सागर तक,
उपकार ही उपकार,
सरिताओं का उपहार,
कल्याण का जीवंत रूप,
उगातीं आहार।
हे मानव !
मत बनो निष्ठुर,
हो तो बड़े ही चतुर,
स्वार्थी भी घनघोर,
मचाते स्व उपकार का शोर,
अपने ही पैरों में करते
कुल्हाड़ी प्रहार !
विडंबना का तुषार!
हृदय -सरिता गई है सूख,
काटे जा रहे लता रूख,
दुःख ही दुःख!
चेतावनी है 'शुभम्'
सँभल जाओ,
अपने भविष्य को
मत यों वीरानगी से
भर जाओ।
🪴 शुभमस्तु !
२६ मई २०२२■५.३० पतनम मार्तण्डस्य।
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