सोमवार, 16 मई 2022

आँगन 💮 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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घुटरुन खेले थे कभी,हम आँगन के  बीच।

देखा धूप न छाँव को,या बरसाती   कीच।।

आँगन  अब बनते नहीं,खींच दिवारें  चार।

कमरे  बनते जा रहे,नहीं धूप का   प्यार।।


माँ  आँगन  की धूप में, बैठ बिलोती  छाछ।

टपक रहीं निम्बौलियाँ,द्वार नीम  का  गाछ।।

मणियों  से आँगन बना,कान्ह निहारे  रूप।

मात यशोदा हर्षमय, लीन नंद ब्रज   भूप।।


आँगन की रज लोटकर, बड़े हुए  हम आज।

जननी  ने ले अंक में ,दिया नेह  का  ताज।।

आँगन  में चौपाल  के,मची होलिका    धूम।

रँग  बरसातीं भाभियाँ,देवर के  मुख   चूम।।


जब से आँगन में खिंची, बँटवारे  की भीत।

प्रेम विदा घर से हुआ,दिवस हुए  विपरीत ।।

संस्कार मिटने लगे, घर - आँगन  के   संग।

बँटा कक्ष  में  आदमी, हृदय हो   गए  तंग।।


आग नहीं  आँगन वही,अब है बढ़ती  आग।

खेलें  बैठें  नेह  से,घर  भर   में     अनुराग।।

बिखरे -बिखरे घर बने,आँगन का क्या काम!

नई   बहू  एकांत  में , माँग रही    आराम।।


अँगना से आँगन सजे,

                       रहीं न अँगना  शेष।

अँगना जब वामा बनीं,

                    बदले    'शुभम्' सुवेष।।


🪴 शुभमस्तु !


१२.०५.२०२२◆ १२.१५

 पतनम मार्तण्डस्य।

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