शुक्रवार, 6 मई 2022

निदाघी ताप 🪸 [ दोहा ]

 

[सूरज, धरती ,गगन, पारा ,पखेरू ]

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✍️शब्दकार ©

🪸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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        🪹 सब में एक 🪹

सूरज से संसार में, ज्योतित दिव्य प्रकाश।

किरण जहाँ जाती वहाँ, करता तम का नाश

सूरज से बोली  उषा,धर गालों    पर   हाथ।

उठो चलो आगे  बढ़ो,  उठा गगन में  माथ।।


धरती माता धारिणी, धरती अपनी   गोद।

जीव,जंतु, नर , नारियाँ, करते हैं  आमोद।।

पंच  भूत  में  एक है, धरती अपनी    नेक।

अन्न,फूल, फल दे  रही,सेवा ही नित  टेक।।


नील गगन कहता यही, बढ़ा विशद विस्तार।

हे  मानव ! ऊपर बढ़ो, करते हुए   निखार।।

निर्मल हो मन  आपका,जैसे गगन    अनंत।

भावलोक में जा रमो,कर इच्छा   का  अंत।।


ज्यों  निदाघ  ऊपर बढ़े,बढ़ता जाए ताप।

पारा ऊपर जा रहा, बना नीर  का  भाप।।

अपनी सीमा पार कर,जाना उचित न मीत।

नीचे ही पारा रखें,कर निज मन को शीत।।


भोर  हुआ  बाहर  उड़े, छोड़ पखेरू  नीड़।

चहचह  के संगीत में, शोभनीय  खग भीड़।।

प्राण - पखेरू  देह में,करता  कहाँ निवास।

जान न पाया जीव ये,जल जाता ज्यों घास।।

  

        🪹 एक में सब 🪹

सूरज से धरती तपी,

                       बढ़ा गगन का     ताप।

दुखी पखेरू ताप से,

                         बढ़ता  पारा     नाप।।


🪴शुभमस्तु!

०४.०५.२०२२◆ ७.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

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