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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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आँगन - आँगन में दीवारें,
सड़कों पर जन- रेला है।
ठोड़ी पर टिक रही हथेली,
मानव यहाँ अकेला है।।
कहते थे कुटुंब वसुधा को,
सभी किताबी बातें हैं।
सोदर बना शत्रु सोदर का ,
प्राणघात की घातें हैं।।
नभ में घूम रहे ज्यों तारे,
बना मृत्तिका ढेला है।
आँगन - आँगन में दीवारें,
सड़कों पर जन - रेला है।।
कोरे आदर्शों की बातें,
भाषण सब बकवासी हैं।
नेता चूस रहे जनता को,
सुघर लक्ष्मी दासी हैं।।
बाँटा अन्न बिना पैसे के,
डाला नाक नकेला है।
आँगन - आँगन में दीवारें,
सड़कों पर जन - रेला है।।
देशभक्त का ढोंग बनाया ,
रँगे हुए कपड़े पहने।
कनक- कामिनी से चुँधिआए,
भरे कोठरी में गहने।।
लच्छेदार जलेबी जैसी,
मधु बातों का भेला है।
आँगन - आँगन में दीवारें,
सड़कों पर जन - रेला है।।
छाया वाले पेड़ नहीं हैं,
सड़कें सूनी - खूनी हैं।
मानसून आए भी कैसे,
जलीं सड़क पर धूनी हैं।।
नहीं पथिक को छाया पानी,
नर पश्चिम का चेला है।
आँगन - आँगन में दीवारें,
सड़कों पर जन - रेला है।।
दौड़ लगाते गाँव शहर की,
शहर उन्हें लतियाते हैं।
दर - दर दूध बेचते जाकर,
क्रय सब्जी कर लाते हैं।।
कौड़ी का भी मोल नहीं है,
गूँगों का जग मेला है।
आँगन - आँगन में दीवारें,
सड़कों पर जन - रेला है।।
🪴 शुभमस्तु !
१८ मई २०२२◆ ७.३० पतनम मार्तण्डस्य।
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