बुधवार, 30 अप्रैल 2025

भँवर पड़ें तो जूझिये [दोहा]

 221/2025

         

[आँधी, तूफान,ओले, झंझावात,भँवर]

    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक

प्रबल  वेग आँधी चले, कभी वज्र आघात।

चैत्र  और  वैशाख   में,असमय हो बरसात।।

अमराई   में  बीनते, जन आँधी के  आम।

मध्य  दुपहरी में  झुकी, सघन साँवली शाम।।


पहलगाम  आतंक का, बना विषम तूफान।

रक्त बहा  सुख शांति में, मिटते नहीं निशान।।

पल  भर  के तूफान का, कैसे सहे  विनाश।

अनहोनी  जब   हो  गई, सारा देश निराश।।


मूँड़  मुड़ाये जब गिरें, ओले कृषक  हताश।

विपदा के  आघात  से,मिट जाए उर आश।।

असमय  मेघों से गिरे, ओले हुआ  प्रभात।

आशाओं पर क्यों हुआ, प्रभु का वज्राघात।।


जीवन झंझावात का,विकट जटिल आयाम।

कब आँधी तूफान हो, कब प्रभात से शाम।।

करके  प्रबल प्रयास भी, रुके न झंझावात।

सबको ही  सहना  पड़े, ओला मेघ प्रपात।।


जीवन - नैया  जा पड़े,गहन भँवर के बीच।

तिनका भी पर्याप्त है, मिलता अगर नगीच।।

भँवर भाग्य   का  मापना,सदा असंभव  बात।

पड़े  निपटना  आपको, जीवन का जलजात।।


                    एक में सब

आँधी   झंझावात  हो,ओले या   तूफान।

भँवर  पड़ें  तो  जूझिये,तभी बचेगी  जान।।


शुभमस्तु !


30.04.2025● 5.00आ०मा० 

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सोमवार, 28 अप्रैल 2025

आकस्मिकता [ व्यंग्य ]

 220/2025 


 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 'आकस्मिकता' एक सौ एक प्रतिशत आकस्मिक है। वह किसी को भी इस बात के लिए संकेत नहीं देती कि वह आने वाली है। किसी को कोई पूर्वाभास भी नहीं देती ऐसा भी हो सकता है। वह किसी को सावधान भी नहीं करती कि सावधान हो जाइए मैं आने वाली हूँ। किसी मनुष्य, समाज,परिवार, देश ,प्रकृति या ब्रह्मांड के किसी भी क्षेत्र में आने वाली आकस्मिकता सर्वांश में आकस्मिक ही है। 

 प्रत्येक मनुष्य का जीवन आकस्मिकताओं से भरा हुआ है।आदमी शाम को अच्छा- भला खा पीकर सोता है और सुबह जब उठता है तो घर वाले देखने हैं कि वह तो पूरी तरह उठ चुका है।वह यह बताने के लिए भी नहीं उठता कि अपने उठ जाने की कहानी भी बताने लायक रहे! कभी -कभी वह पाता है कि वह बीमार है।उसे बुखार है।उसकी देह में दर्द है। उसे जुकाम है। उसे दस्त हो गए हैं। वह बोल नहीं पा रहा है। और न जाने क्या क्या हो जा सकता है;कहा नहीं जा सकता।यही सब वे अज्ञात अकस्मिकताएँ हैं,जो सदैव रहस्य रही हैं और रहस्य ही बनी रहेंगीं।

         'आकस्मिकता' के अनेक पर्याय हो सकते हैं।जैसे दुर्घटना,मृत्यु,बीमारी,  धी,तूफान,भूकंप,हत्याकांड,बाढ़,सुनामी,वज्राघात,गर्भाधान आदि आदि।इनके अतिरिक्त बहुत सारी अनंत आकस्मिकताएँ हैं,जिनका हिसाब-किताब रखना भी असंभव है।यदि आकस्मिकता का पूर्व में ही ज्ञान हो तो आकस्मिकता कैसी? इसीलिए इसे अनहोनी भी कह दिया जाता है।

  आकस्मिकता का पूर्व घोषित कोई इतिहास है न भूगोल।यह तो अंतरिक्ष की वह पोल है,जो इधर से उधर और उधर से इधर गोल ही गोल है। इसीलिए उसका कोई आदि है न अंत है।जब तक यह सृष्टि है,आकस्मिकता भी अनंत है। अब ढूँढते रहिए आकस्मिकता का कारण और उसके विविध निवारण, पर उसका तो अस्तित्व ही है अनिवारक और बनने लायक उदाहरण।हर आकस्मिकता अपने रूप और स्वरूप में मौलिक है।सृष्टि का ऐसा कोई स्थान नहीं ,जहाँ आकस्मिकता न हो।लगता है यह आकस्मिकता ही ब्रह्म है।आम या हर खास के लिए भ्रम है। आकस्मिकता समय का कर्म है। वह समय का ही क्रम है।वह एक दुरूह पहेली है। च्युंगम की तरह चुभलाते रहिए, पर कहीं कोई रस नहीं। इस पर आदमी का वश नहीं। उस पर किसी का कोई नियंत्रण भी नहीं। आकस्मिकता की नजरों में जो हुआ है ,वही सही। 

  हजारों लाखों अकस्मिकताएँ नित्य निरन्तर घटती हैं। पल -पल घट रही हैं।इसीलिए इसे एक और नाम :'परिवर्तन' से अभिहित किया जा सकता है। कोई आकस्मिकता सदा अशुभ ही हो;यह भी कोई अनिवार्य नहीं है। हाँ,इतना अवश्य है , जब कोई आकस्मिकता घटित होती है,तो चौंकाती अवश्य है।लोग कह देते हैं कि जो होता है;वह अच्छे के लिए ही होता है।यह भी सत्य ही है कि एक का भला सबका भला नहीं हो सकता।इसके रूप ही इतने वैविध्यपूर्ण हैं,कि शुभाशुभ की पहचान ही दुश्कर कार्य है। प्रकृति को कब क्या करना है,कोई नहीं जानता। सबसे बुद्धिमान होने का दावा करने वाले मनुष्य के लिए भी आकस्मिकता का रहस्य जानना असंभव है। बस यहीं आकर मानव की बुद्धि बौनी हो जाती है। वह बहुज्ञ हो सकता है;किंतु सर्वज्ञ नहीं हो सकता। सृष्टि का कर्ता क्या चाहता है; कोई नहीं जानता। यहाँ उसका ज्योतिष ,विज्ञान और गणित पूर्णतः अक्षम हो जाता है। तभी उसे परमात्मा की अनन्त शक्ति का आभास होता है।

   'आकस्मिकता' का यह लेख भी एक आकस्मिकता का अंग है।यकायक मन में जाग्रत एक उमंग है। भावों के साथ शब्दों का उछलता हुआ कुरंग है। अपनी अभिव्यक्ति का यह भी एक रंग है। आइए हम सभी आकस्मिकता पर विचार करें। किसी भी आकस्मिकता से नहीं डरें। क्योंकि जो होना है,वह तो होना ही है। फिर डरना घबराना कैसा? बस आगे बढ़ते जाएँ समय हमें बढ़ाए जैसा- जैसा।शब्द बहुत छोटा है,किंतु बड़ा खोटा है। कहीं यह नन्हा है सूक्ष्म है,मोटा है। पर सर्वथा अदृष्ट है। आदमी को इसी बात का तो कष्ट है कि आकस्मिकता गूँगी क्यों है?मौन क्यों है? निरजिह्व क्यों है? 

 शुभमस्तु ! 

 28.04.2025●10.00आ०मा० 

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मानव तन में हैं जो गाली [गीतिका ]

 219/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मानव   तन   में   हैं  जो   गाली।

उन्हें   सोहती     केवल   नाली।।


रंग  हिना का   हुआ  न  हलका,

मिटी   माँग   अधरों की  लाली।


पहलगाम  की     काँपी    वादी,

थर - थर  काँपी   डाली - डाली।


बुझा  दिए  जिनके  कुल दीपक,

बजे न  घर में    शैशव  -  ताली।


तम  से  भरे    हृदय    थे  काले,

दृष्टि   हुई  आँखों    की   काली।


नहीं   खिलेंगे     होली   के   रँग,

नहीं  जलाए    दीप     दिवाली।


'शुभम्'  म्लेच्छ  की रक्त पिपासा,

भरी     उठाती    व्यंजन - थाली।


शुभमस्तु !


28.04.2025●2.00 आ०मा०

म्लेच्छ की रक्त-पिपासा [सजल ]

 218/2025


समांत        :आली

पदांत         :अपदांत

मात्राभार     :16

मात्रा पतन   :शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मानव   तन   में   हैं  जो   गाली।

उन्हें   सोहती     केवल   नाली।।


रंग  हिना का   हुआ  न  हलका।

मिटी   माँग   अधरों की  लाली।।


पहलगाम  की     काँपी    वादी।

थर - थर  काँपी   डाली - डाली।।


बुझा  दिए  जिनके  कुल दीपक।

बजे न  घर में    शैशव  -  ताली।।


तम  से  भरे    हृदय    थे  काले।

दृष्टि   हुई  आँखों    की   काली।।


नहीं   खिलेंगे     होली   के   रँग।

नहीं  जलाए    दीप     दिवाली।।


'शुभम्'  म्लेच्छ  की रक्त पिपासा।

भरी     उठाती    व्यंजन - थाली।।


शुभमस्तु !


28.04.2025●2.00 आ०मा०

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पहलगाम कश्मीर में [ दोहा ]

 217/2025

       

[ पहलगाम,आतंक,हमला,हत्या,सरकार]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक


पहलगाम    कश्मीर   में, निर्दोषों का    खून।

 बहा   रहे    हैं  म्लेच्छ   क्यों, माँगें होतीं  सून।।

पहलगाम  की  वादियाँ, रँगीं  रक्त से  आज।

हमें  आज  आतंक की,सकल मिटानी खाज।।


जान गए आतंक का,क्या मज़हब क्या धर्म।

हत्यारे   कब  जानते,    पाषाणी    है    मर्म।।

आतंकी  आतंक का,  आया अंतिम   काल।

गीदड़ मरने को हुआ, बिल  में पड़ा निढाल।।


मानवता   मरने   लगी,  दानवता का   खेल।

मानव पर  हमला  हुआ,उर का नेह धकेल।।

हमला   है  निर्दोष  पर,नहीं क्षमा का  दान।

मिलना   है  आतंक  को, रहे न छप्पर  छान।।


हत्या  कर  बिल  में  घुसे, कायर क्रूर  कपूत।

सैन्य दलों को मिल रहे,जिनके सबल सबूत।।

जाति  धर्म  को  पूछकर, करते हत्या  नीच।

मानवता  जिनकी मरी,भरी मगज में कीच।।


भाव   भरा  प्रतिशोध  का,जागरूक  सरकार।

खोज-खोज  रिपु  मारती,करके कुलिश प्रहार।।

भौंचक्की    सरकार  है,  भौंचक्के  हैं   लोग।

देश विभाजन जब हुआ, तब  से   है  ये  रोग।।


                   एक में सब

हमला   कर हत्या करें, पहलगाम   में  क्रूर।

जान   गई सरकार   ये, यह आतंक   सुदूर।।


शुभमस्तु!


27.04.2025●7.15आ०मा०

मज़हब सिखा रहा है! [अतुकांतिका[

 216/2025

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मज़हब सिखा रहा है

करना है बैर जन से

कितना लहू  बहा है

इंसानियत के तन से।


कभी नहीं सोचा था 

कि  होगी न वापसी यों

धिक्कार नराधमो रे!

क्या हस्र होंगे तेरे।


कश्मीर स्वर्ग था कब

यह जान नहीं पाया!

उस रक्तरंजित गोली का

राक्षस कभी अघाया?


किस ओर जा रहा है

ये देश का गद्दार आतताई

धिक्कार उस जननि को

कहता है जिसको माई! 


प्रतिशोध ही प्रतिशोध हो

कुछ भी नहीं है सोचना,

गोली का जवाब गोला

जो गए न उनको लौटना!


शुभमस्तु !


24.04.2025●11.00आ०मा०

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वृथा स्वर्ग की बात [ नवगीत ]

 215/2025

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


खंड -खंड हो रही धरा ये

वृथा स्वर्ग की बात।


पहलगाम बंगाल पश्चिमी

केरल तमिलस्थान

मानवता पददलित रक्त से

रंजित हिंदुस्तान

मनुज देह में नर पिशाच का

नित्य भयंकर घात।


सरकारें सब शून्य हो रहीं

कहाँ प्रशासन शेष

नहीं आदमी लगे आदमी

रहे अजा या मेष

कौन कहेगा उस मानव को

अब मानव की जात।


इतना  निर्मम  ढोर  जंगली

कभी न हो बीमार

प्रश्न चिह्न है अब मानव पर

लेगा कौन उबार

शेर और चीते सब पीछे

किसकी शेष बिसात।


शुभमस्तु!


23.04.2025●3.45प०मा०

कौन करे उपचार [नवगीत]

 214/2025

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रोग एक ही सबको हो तो

कौन करे उपचार।


आम खास कोई भी ऐसा

जिसे नहीं हो रोग

पड़े मौन सब खाज खुजाते

काम न आए योग

मान रहे हैं खुशी-खुशी सब

ईजादक -आभार।


सबको ज्ञान बाँटता शिक्षक

स्वयं न लेता सीख

उपचारक क्या करे बिचारा

चूस रहा वह ईख

संविधान की धाराओं  से

रोगिल जन लाचार।


सबने  हाथ खिलौना थामा

और न सूझे काम

अतिथि द्वार से प्यासा लौटे

मौन पड़े हैं धाम

'शुभम्' छूत ही ऐसी मीठी

समझ रहा उपहार।


शुभमस्तु !


23.04.2025●3.30प०मा०

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पुस्तक है माँ शारदा [दोहा]

 213/2025

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जब से  पुस्तक - प्रेम के, गए  बीत युग मीत।

मोबाइल   से    लोग  ये, चलें  चाल विपरीत।।

सभी   समय   की  मित्र हैं,पुस्तक देतीं  ज्ञान।

ज्ञानी   जन  संसार  में,  पाते  हैं सुख   मान।।


गीता   रामायण   नहीं,पुस्तक जीवन   गीत।

दिखलातीं नित राह वे,सभी समय की मीत।।

जाना नहीं महत्त्व जो, पुस्तक का भुव लोक।

राह न मिलती ज्ञान की,मिले रोक ही   रोक।।


पुस्तक   को   सम्मान   दें,तुम्हें मिलेगा  मान।

मस्तक  से  अपने  लगा,बनता मनुज महान।।

पुस्तक  को मत लाँघिये, उठा एक भी  टाँग।

हर कृति  है माँ  शारदा, धरें शीश शुभ  माँग।।


मंदिर   में  ज्यों   देवियाँ,  दुर्गा   रूप महान।

त्यों  घर  में   देवी वही,  पुस्तक ज्ञान प्रमान।।

पुस्तक  से  पंडित   बने,धारण कर निज शीश।

जीवन   मित्र सँवार ले,  पुजे  भक्त ज्यों ईश।।


अवमूल्यन  है  ज्ञान  का, पुस्तक का अपमान।

ज्ञान  डिजीटल  हो  गया, मूँछ  रहा है  तान।।

पढ़ - पढ़   पुस्तक ज्ञान  की,विदुषी या विद्वान।

नाम  प्रकाशित  कर  रहे,कहता जगत महान।।


उर   से  सदा   लगाइए,  पढ़ पुस्तक धर  ध्यान।

चमकेगा   नर  भानु - सा,  मिले जगत में  मान।।


शुभमस्तु !


23.04.2025●10.15आ०मा०

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तेवर सूरज धूप के [ दोहा ]



212/2025

           

       [सूरज,धूप,वैशाख,तेवर,ताव]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                 सब में एक

हैं   प्रत्यक्ष   रवि  देवता, सूरज जिनका  नाम।

जीवन  दें  इस  सृष्टि को,वही श्याम वह  राम।।

सूरज   की   नव रश्मियाँ,करतीं तेज  प्रकाश।

तमस   तनिक   रहता नहीं,होता पल में   नाश।।


धूप खिली चिड़ियाँ  जगीं, पिहू- पिहू कर मोर।

उड़ते   हैं    वन - बाग   में,हुआ सुनहरी   भोर।।

बिना धूप  जीवन  नहीं, पकें फसल  चहुँ  ओर।

शीतकाल  में  जीव- जन, तरसें कब   हो  भोर।।


मधुऋतु  है वैशाख में, मस्त तितलियाँ  कुंज।

सुमन सजे वन-बाग में,भ्रमर करें नित   गुंज।।

मौसम    मधुर   सुहावना,  आए  हैं ऋतुराज।

चैत्र और  वैशाख  की, महिमा का शुभ साज।।


तेवर   तीखे    तप्त  हैं, सूरज के चहुँ   ओर।

पादप पीले  पतित  हैं,  पतझड़  के सँग भोर।।

तेवर   देखे   नैन  के, समझ गया मैं   भाव।

मन   में रहा न लेश भी,भावन भावित  चाव।।


लगा   जलाने सृष्टि को,आव न देखा  ताव।

सूरज  तप्त  निदाघ  का, करे देह पर   घाव।।

तीखे    तेरे   ताव  की,   तपन  तरेरे  आँख।

मेरे  मन   के   कीर   के,उड़ें  रँगीले   पाँख।।


                एक में सब

तेवर   सूरज   धूप के  ,दिखलाते   हैं  ताव।

चैत्र   मधुर वैशाख   में,   तरे सुहानी   नाव।।


शुभमस्तु !


23.04.2025● 6.30आ०मा०

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[7:59 am, 25/4/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

श्रीगणेश कविता करूँ [दोहा]



211/2025

       

[अर्चन,कीर्तन,स्मरण,श्रवण,वंदन]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक


प्रथम पूज्य गणनाथ का,अर्चन करके आज।

श्रीगणेश  कविता  करूँ,भाव शब्द के साज।।

सरस्वती    वरदायिनी,  अर्चन करके  नित्य।

भाव सुमन अर्पित करूँ,सहित शब्द औचित्य।।


करे  कीर्तन  इष्ट  का, भावों  में  हो   लीन।

राम -राम रसना   रटे,  ज्यों   तैरे जल  मीन।।

नहीं कीर्तन जो  करे, जपे न हरि का   नाम।

अंत  समय  में  जीभ  ये,बिसराए प्रभु  राम।।


करे    सु- स्मरण ईश का, जब हो मन   बेचैन।

विस्मृत  करे  न लेश भी,प्रभु जी को  दिन-रैन।।

बार -बार जप  राम  को,स्मरण को  मत  भूल।

संकट   मिट  जाएँ  सभी, उगें  न शूल   बबूल।।


करे     श्रवण   प्रभु  नाम ही,करे नाम   उद्गार।

रहे  न   मन   में   एक  भी,  दूषित मनोविकार।।

गुरुजन     की  आलोचना,  सुनना ही   है  पाप।

श्रवण नहीं बिल साँप  के,जिन्हें न व्यापे ताप।।


मात - पिता   गुरुदेव   हैं, ईश वही भगवान।

नित   उनका वंदन  करे, मानव वही महान।।

इष्ट  वही सबसे बड़े, जननी-जनक महान।

नित वंदन उनका करूँ,उनका तना वितान।।

             

                एक में सब

अर्चन  वंदन  श्रवण भी,मात- पिता का श्रेष्ठ।

स्मरण सह  कीर्तन करें,वही जगत में ज्येष्ठ।।


शुभमस्तु !


20.04.2025● 9.15आ०मा०

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शनिवार, 19 अप्रैल 2025

सबका सम अधिकार [कुंडलिया]

 210/2025

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

करते   हैं   उत्पात   वे,  जिनको देश  समाज।

जनहित  भी  भाता  नहीं,विकृत करते साज।।

विकृत  करते   साज, देश  की शांति  मिटाते।

गिरे  किसी  पर   गाज,   खड़े- बैठे पगुराते।।

'शुभम्'    देश   के   कोढ़, नहीं  वे रब से डरते।

बेशर्मी   ली   ओढ़, सभी को व्याकुल करते।।


                         -2-

करना  ही  उत्पात  को,जिनका लक्ष्य  प्रधान।

शांति  सौख्य  सौहार्द  के, सदा काटते कान।।

सदा    काटते   कान, नहीं   समता से    नाता।

जिन्हें मिला  वरदान, नहीं मानव मन   भाता।।

'शुभम्'  काठ   के  कीट, नींद सोते की हरना।

करें   सदा   ही  बीट, उपद्रव नित ही  करना।।


                         -3-

सबका    सम   अधिकार   है, समतावादी  देश।

ऊँचनीच  का  भेद  क्यों,यद्यपि विविध  सुवेश।।

यद्यपि   विविध  सुवेश,  करें  उत्पात   अनाड़ी।

चाहत   निजी   विकास, चले उनकी  ही  गाड़ी।।

'शुभम्' सभी को काम,मिले करुणा कर रब का।

एक   सभी   का  राम,  देश ये भारत   सबका।।


                         -4-

दानव   दल   बढ़ने  लगा, नित्य  करे उत्पात।

दाँव    लगाकर    देश   में,  पहुँचाए आघात।

पहुँचाए आघात,  हानि जन- धन की  करता।

दिवस  न   देखे   रात,   सुधारे  नहीं  सुधरता।।

'शुभम्'   देश  में  नाग,पनपते मिटता  मानव।

नहीं शांति का दूत, शत्रु जन -धन  का  दानव।।


                            -5-

बोया    बीज  बबूल   का, अमराई  के   बीच।

खिलना  फूल   सरोज का,  गाढ़ी-गाढ़ी  कीच।।

गाढ़ी-गाढ़ी    कीच,   शूल   की  बाढ़   सताए।

जन्म-जन्म   का  नीच, कहो कैसे वह   भाए??

'शुभम्' आज भी मूढ़, नहीं जागा क्यों   सोया?

होता     है    उत्पात,  शूल का बिरवा    बोया।।


शुभमस्तु!


18.04.2025 ●12.15प०मा०

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समता [सोरठा]

 209/2025

                    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समता का क्या अर्थ,धरणी अंबर की कभी।

तर्क करें जन व्यर्थ,अलग-अलग आकार हैं।।

किंतु विषम है धर्म,समता की चाहत बड़ी।

करें   बराबर  कर्म, अपनाएँ  सब धर्म  भी।।


सब  समता  से दूर,पंचांगुलियाँ हाथ  की।

लगी  हुईं  भरपूर,  अपने-अपने कर्म  में।।

सबकी एक समान,संभव है समता नहीं।

सब ही श्रेष्ठ महान,काम अँगूठा जो करे।।


समता का कुछ मान,नहीं धनिक से भिक्षु की।

धनिक   दे   रहा  दान, भीख  एक है   माँगता।।

उचित नहीं है मित्र,समता -समता की   रटन।

अलग - अलग  हों इत्र,पाटल और धतूर  के।।


उचित न एक समान,समता बालक वृद्ध की।

पुरुष   धनुष  तिय  बान,नर से नारी भिन्न   है।।

अलग -अलग है मोल,राजा हो या रंक  हो।

ढपली   के  सँग ढोल,समता में मत तोलिए।।


समता   वाली  बात, बहुत  सुहानी ही  लगे।

अँधियारी   हो  रात, दिन  में  तेज प्रकाश  है।।

कहता भले विधान,समता के अधिकार को।

सबका है सम मान?क्या यथार्थ व्यवहार में।।


समता  का  अधिकार,करने को मतदान   ही।

विषम  रूप  उपहार,वरना देश समाज  में।।


शुभमस्तु!


17.04.2025●3.45प०मा०

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ये कैसा गणतंत्र है? [ अतुकांतिका ]

 208/2025

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सिल दिए गए हों

जनता के होंठ

जुबाँ पर ताला जड़ा,

क्या कहें इसे 

सुशासन या अति-आचार बड़ा

ये कैसा गणतंत्र है?


चुसना है आम को सदा

उन्हें समूचा चूस लेना है

एक देकर दाहिने कर से

बाएँ से दस  मूस लेना है

धन्य मेरे प्रजा के तंत्र!


समाज हो 

देश हो व्यवस्था हो

तानाशाही अदृष्ट नहीं,

विनाश का लक्षण है ये

यहाँ कोई भ्रष्ट नहीं,

फूँक जो दिया है मंत्र!


मौन में ही चैन है

सुनना है ,कहना नहीं

वेदना को सहना है

भावों में बहना नहीं,

हो ही गया है 

देश ये स्वतंत्र।


शुभमस्तु !


17.04.2025●2.30प०मा०

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समाधान [ दोहा ]

 207/2025

                 

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समाधान   सब  चाहते,करते नहीं प्रयास।

सहयोगी  हो   भावना, रहती नहीं खटास।।

समाधान   यदि चाहिए,जाग्रत रहे विवेक।

शंकाएँ    सब   दूर  हों, बाधा  टलें अनेक।।


समाधान  से  शांति का,खिलता है नव फूल।

समझौतावादी     बनें,  धारण    करें  उसूल।।

समाधान  सुख चैन  की, करता है बरसात।

मिटते  सभी  तनाव हैं, होता नवल प्रभात।।


शांतिवार्ता   से   सभी,  शंकाएँ   कर   दूर।

समाधान  मिलते  सभी,  स्वाद भरे भरपूर।।

समाधान  में  भाव  का, बहुत बड़ा है  मान।

मन में  नहीं   कुभाव  हो,मिले नेह का दान।।


नहीं  पाक  को  चाहिए, समाधान की  शांति।

जेहन में उसके बसी, सदा कपट कटु भ्रांति।।

समाधान  धृतराष्ट्र  का, नहीं लक्ष्य था   एक।

छाया  कपट चरित्र में, क्रूर कुटिल अविवेक।।


समाधान सुख शांति  का, एक सुखद संदेश।

वरना  दुःख  अशांति ही, आती बदले   वेश।।

समाधान  जो  जानते,  बुद्धिमान  नर  धीर।

रहते नेहिल   भाव से,सघन तमस को  चीर।।


उलझाते  जो  काज  को, उनमें नहीं विवेक।

 समाधान कैसे करें  ,बद कथनी  की  टेक।।


शुभमस्तु !


16.04.2025● 9.15आ०मा०

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पोखर में पानी नहीं [ दोहा ]

 206/2025

 

    [पंछी,चिरैया,गौरैया,पोखर,ताल]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                सब में एक

मन   के पंछी को  नहीं, कभी एक  पल चैन।

होता  वह किंचित  कभी, शांत  नहीं दिन-रैन।।

भीषण   उग्र   निदाघ  है, व्याकुल पंछी  ढोर।

व्यथित सभी नर-नारियाँ,दिवस रात या भोर।।


उड़े चिरैया  बाग  में, डाल-डाल पर   नित्य।

दाना - पानी   ढूँढ़ती,  उधर   उग्र आदित्य।।

फुदक-फुदक  घर में करे, एक चिरैया नेक।

कभी रसोई  में  मिले, कभी छतों की टेक।।


मानव की  करतूत से,   गौरैया  के     प्राण।

संकट   में  अब  चाहिए, उसे  हमारा  त्राण।।

गौरैया खग   फाख्ता,  मोर  घरों की शान।

हनन  नहीं  इनका  करें, त्राण  करें दे  मान।।


पोखर में  पानी  नहीं, नदी  रहीं सब   सूख।

जीव -जंतु व्याकुल सभी,सता रही  है  भूख।।

पोखर  प्यासी    नीर से, पड़ने लगीं  दरार।

सूरज   आँख   तरेरते,  विदा वसंत बहार।।


ताल  तलैया    पोखरे,  सरवर  बड़े  उदास।

तप्त विषम  वैशाख में,नहीं अंबु की   आस।।

ताल  नहीं अब  शेष  हैं,मानव की  करतूत।

भवन  बना   रहने  लगे, शेष  न एक  सबूत।।


                  एक में सब

गौरैया   पंछी   दुखी, दुखी चिरैया   मीन।

सूखे पोखर  ताल भी,नर-नारी दुख लीन।।


शुभमस्तु !


16.04.2025●6.45 आ०मा०

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पड़े जुबाँ पर ताला क्यों? [गीत]

 205/2025

       

©शब्दकार

डॉ भगवत स्वरूप 'शुभम्'


संविधान देता है   हक ये

पड़े जुबाँ पर ताला क्यों?


सबको है इतनी आजादी

कोई रोक नहीं सकता

कहना हो जो बात कहें सब

कोई टोक नहीं सकता

संविधान अधिकार दे रहा

किसी जीभ पर जाला क्यों?


मनमानी करने की कोई

नहीं किसी को आजादी

सीमा में रहना है सबको

बनें सभी जन संवादी

जनता के होठों को सिल दो

नेताओं को माला क्यों?


नहीं चलेगी तानाशाही

कोई कितना खास भले

नहीं बपौती देश किसी की

सबकी सहज सु-श्वास चले

आम आदमी पिसता निशिदिन

पड़ा  अनय से पाला क्यों?


शुभमस्तु!


15.04.2025●4.30आ०मा०

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अगर न खिलतीं कलियाँ [गीतिका ]

 204/2025

    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अगर  न खिलतीं  कलियाँ   होतीं।

सुंदर  सहज   न   छवियाँ   होतीं।।


पर्वत    सजल    न   ऊँचे     होते,

नहीं      लहरतीं     नदियाँ   होतीं।


सुमन  बाग   क्यारी   में    खिलते,

उड़तीं  नहीं   तितलियाँ     होतीं।


लोग  झाँकते      ग्रीवा     अपनी,

नहीं   एक    भी   कमियाँ   होतीं।


मीन -  मेख    करतीं   आपस   में ,

नहीं  घरों    में     जनियाँ    होतीं।


देखा      होता      कहीं     अजूबा,

मौन  धरे  यदि    सखियाँ   होतीं।


'शुभम्'   देवता    बनता    मानव,

नहीं     विषैली     दंतियाँ   होतीं।


शुभमस्तु !


14.04.2025● 11.45 आ०मा०

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सुमन बाग क्यारी में खिलते [सजल ]

 203/2025

    

समांत        :इयाँ

पदांत         : होतीं

मात्राभार     : 16

मात्रा पतन   : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अगर  न खिलतीं  कलियाँ   होतीं।

सुंदर  सहज   न   छवियाँ   होतीं।।


पर्वत    सजल    न   ऊँचे     होते।

नहीं      लहरतीं     नदियाँ   होतीं।।


सुमन  बाग   क्यारी   में    खिलते ।

उड़तीं  नहीं   तितलियाँ     होतीं।।


लोग  झाँकते      ग्रीवा     अपनी।

नहीं   एक    भी   कमियाँ   होतीं।।


मीन -  मेख    करतीं   आपस   में ।

नहीं  घरों    में     जनियाँ    होतीं।।


देखा      होता      कहीं     अजूबा।

मौन  धरे  यदि    सखियाँ   होतीं।।


'शुभम्'   देवता    बनता    मानव।

नहीं     विषैली     दंतियाँ   होतीं।।


शुभमस्तु !


14.04.2025● 11.45 आ०मा०

                      ●●●

पंच ज्ञानेन्द्रियाँ [दोहा]

 202/2025

           

     [आँख,नाक,कान,जीभ,त्वचा]


                 सब में एक

मिली आँख से आँख तो,खुले हृदय के द्वार।

ताप  बढ़ा  है  देह  में, उठा  उदधि  में   ज्वार।।

खोले दोनों आँख को,चले पथिक  जो  राह।

सावधान   होकर   बढ़े,  करे लक्ष्य अवगाह।।


आना -जाना  श्वास  का,करती है हर  नाक।

प्राण वायु  संचार  का,रुके न पल को चाक।।

कटे नाक  बचते  नहीं, स्वाभिमान  सम्मान।

बचा रखें हर मूल्य पर, जगत  करे गुणगान।।


ध्वनिग्राही   दो   यंत्र  हैं,उभर  रहे दो   कान।

मधुर-कटुक ध्वनियाँ सभी,सुनते करें निदान।।

शुभ   रचना  दो कान की,चले न उनसे  काम।

ध्यान  रहे   एकाग्र  तो,श्रवण  बने अभिराम।।


बिना अस्थि की जीभ ये,सरस्वती का वास।

विष -अमृत इसमें सदा,करते तमस-उजास।।

जीभ स्वर्ग की गैल है,विष की भी वह  बेल।

उसको  सदा   सँभालिए,करे अन्यथा  जेल।।


त्वचा   इंद्रियों  में सभी,व्यापक वृहदाकार।

रक्षक है  नर  देह  की,रखती बड़ा प्रभार।।

गोरे-काले   रंग  दो, त्वचा देह का   वस्त्र।

कोमल मानो  फूल हो,बचा अस्त्र या शस्त्र।।

              एक में सब

त्वचा जीभ दो आँख हैं,इन्द्रिय पंच महान।

नाक कान मत भूलिए,इनसे सकल जहान।।


शुभमस्तु !


13.04.2025●5.00प०मा०

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गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

आदर [कुंडलिया]

 201/2025 

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

करिए  आदर  अतिथि  का, आ जाए  जो  द्वार।

अतिथि  देव  सम   पूज्य है, रहना सदा    उदार।।

रहना    सदा  उदार, भोज    पानी  सब    देना।

आया  है  किस   काज,  जान  वाणी  से   लेना।। 

'शुभम्' न विष को घोल,कष्ट उसके सब   हरिए।

दे   आदर   सत्कार,अतिथि का स्वागत   करिए।।


                         -2-

जनता    से  नेता  सभी,  चाह  रहे हैं    मान।

कदम-कदम   आदर  मिले, भले न टूटी   छान।।

भले  न  टूटी  छान,  न  जनता किंचित  भाए।

झूठे   करे   बखान,   झूठ  आश्वासन    लाए।।

'शुभम्' जोड़ता   हाथ, दिखाकर आँखें  तनता।

कड़वा  लगता   क्वाथ,चूसता  भूखी    जनता।।


                         -3-

सबका   आदर   कीजिए,  करे  नहीं  अपमान।

मात -पिता गुरुजन सभी,पूज्य अपरिमित शान।।

पूज्य   अपरिमित शान, बड़े - छोटे हों     कोई।

एक  सभी   की   चाह,  भले  चम्मच बटलोई।।

'शुभम्'  गया जब  मान, महाभारत आ  धमका।

इसीलिए   धर  ध्यान,करें हम आदर    सबका।।


                         -4-

करता आदर  अन्य  का, पाता  है वह  मान।

श्वान -पुत्र  पहचानता,  मानुष  प्रेम निधान।।

मानुष  प्रेम  निधान, पाँव को पुनि- पुनि चाटे।

भले  ऐंठ  लो  कान, नहीं कण भर भी  काटे।।

'शुभम्' प्रेम विश्वास,श्वान का कभी न मरता।

आजीवन  रह  पास, गृही का आदर करता।।


                         -5-

भूखे   आदर   के  सभी, निर्धन  और  अमीर।

स्वाभिमान सबका  बड़ा,इससे सभी   अधीर।।

इससे  सभी  अधीर, तनिक अपमान  न  झेलें।

उड़ते  सरिस  समीर,  बड़ी विपदा भी  ले लें।।

'शुभम्' न कर व्यवहार,कभी मानुष से रूखे।

खुले   मान   का   द्वार, सभी   हैं इसके भूखे।।


शुभमस्तु !


10.04.2025●8.00 प०मा०

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ये बदलाव [अतुकांतिका ]

 200/2025

                  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


झंडे गाड़ रहे हैं

यहाँ - वहाँ

तिकड़मबाज सभी

सुपथ चलने वालों को

झंझावात हैं

झकोरे हैं।


सत्य का मूल्य नहीं

सर्पों का अनुष्ठान है,

काटे जा रहे सीधे-सीधे

टेढ़े ही महान हैं।


तिकड़मी सभी बुद्धिमान

सीधे  खरे बैल हैं,

पत्नियाँ पतन ग्रस्त

दिलों में रखैल हैं।


बदल गया है जमाना

बच्चे बाप के भी बाप,

कहते हैं  उन्हें यार - यार 

पिताओं को लगा अभिशाप।


कल्पनातीत है ये बात

वक्त कहाँ ले जाएगा,

आदमी और ढोरों की

सभ्यता एक

क्यों है?कोई बताएगा?


शुभमस्तु !


10.04.2025●5.30प०मा०

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तिकड़म [व्यंग्य ]

 197/2025 

 

 ©व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 इस असार संसार में ऐसा भी बहुत कुछ विद्यमान है , जो ससार है,सारवान है।ऐसे ही सारवानों में एक शब्द 'तिकड़म' है।जिससे इस संसार का बहुत कुछ उपक्रम संचालित है।अगर यह न होता तो यह संसार अपने बहुत कुछ 'अति महत्त्वपूर्ण' से वंचित हो सकता था। तिकड़म की संतानों की संख्या इतनी अधिक है कि स्वयं तिकड़म को भी नहीं पता कि वह कितनी जायज संतानों की जननी है। बस उसे जन्म देते चले जाना है। इस बात की उसे कभी जिज्ञासा नहीं हुई कि उसकी यह जनसंख्या वृद्धि क्यों और किस उद्देश्य है होती जा रही है।

 तिकड़म की सभी सभी संतानों की संख्या और नाम का अभिज्ञान तो इस अकिंचन को भी नहीं है।कोई दो चार हों तो गिना और बताया जाए, जब दिन दूना और रात चौगुना प्रजनन हो रहा है तो कोई कितना हिसाब रखे। तिकड़म के कुछ खास - खास और बड़े -बड़े बच्चों के नाम और उनकी ख्याति का गुणगान अपनी सीमा में रहकर बताने का प्रयास करूँगा।

 'तिकड़म' के परिवार में जाने से पहले यह जानना भी आवश्यक है कि वह कौनसी अनुकूल परिस्थितियाँ रही होंगीं जब 'तिकड़म' ने अवतार लिया होगा।तिकड़म का जन्म स्थान मनुष्य की बुद्धि है। इस जागतिक जगत के बहुत सारे कामकाज,व्यवस्थाएँ और रीति -नीतियाँ सामान्य रूप से संचालित नहीं हो पा रही होंगीं तो दिमाग में किसी कुटिल कीट ने विदेह रूप धारण कर लिया ,जो चुटकी बजाते ही वह असाध्य कार्य करने में तत्पर था। जिसे 'तिकड़म' नामधारी संज्ञा से अभिहित किया गया। यह अपने वास्तविक स्वरूप में किसी  सरलरता,सौम्यता,स्पष्टता,सादगी और सभ्यता के विपरीत ही था।इसे उलटे - सीधे चलने से कोई परहेज नहीं था।येन-केन-प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करना ही इसका उद्देश्य रहा। छल,दंभ,द्वेष,पाखंड,अनीति, अन्याय आदि सबका साथ लेकर सबका कार्य साधना ही इसका लक्ष्य माना गया। निराश में आशा का संचार करना ही इसका मुख्य ध्येय था।तरीका क्या रहे,कैसा रहे- इससे कोई मतलब नहीं। बस लक्ष्य सिद्धि ही तिकड़म की चिड़िया की आँख बनी।

 आपकी जिज्ञासा है तो यह बता देना भी आवश्यक है कि तिकड़म की संतानें कौन-कौन हैं और वे किस प्रकार फल फूल- रही हैं।कुछ ऐसे प्रसिद्ध तिकड़म संतति के नाम मेरी जानकारी में हैं,उन्हें बताए दे रहा हूँ। इनमें राजनीति, रिश्वत, मिलावट,चौर्य,गबन,छल,धोखा, अनीति,व्यभिचार,चरित्रहीनता आदि प्रमुख सन्ततियाँ हैं। यदि इनमें से किसी एक का भी कच्चा चिट्ठा खोल लीजिए तो कई -कई महाग्रंथों का निर्माण हो जाए।राजनीति को तिकड़म की सबसे बड़ी संतान समझा जा सकता है।यह अनादि काल से अपने नए-नए मुखौटों में प्रकट होती हुई विरोधियों को धूलिसात करती हुई 'जनहित' करने पर उतारू है।इसके लिए कुछ भी उचित या अनुचित नहीं है।बस सामने वाले को पछाड़ना है।यह पवित्र कार्य कैसे भी हो, किसी भी साधन से हो,हिंसा या अहिंसा से हो, यह नहीं देखना ; बस सामने वाला विपक्षी धराशायी हो जाना चाहिए।नाम के साथ यों तो 'नीति'शब्द भी जुड़ा हुआ है,किन्तु उसे नीति से कोई मतलब नहीं है; जो है सब 'राज' ही राज है ।सब 'राज'(रहस्य) की ही बात है। यदि उनके राज की बात ही किसी के सामने खुल गई तो क्या रहा राज और क्या रही राजनीति? सब कुछ टेढ़ी चालों और छलों की मोटी दीवार के पीछे छिपा हुआ चलता है। जो जितना बड़ा राजनेता, उतना बड़ा तिकड़मी।इस 'तिकड़म ' शब्द ने तिकड़म, तिकड़मी,तिकड़मबाज, तिकड़मबाजी,तिकड़मखोर आदि अनेक शब्दों को जन्म देकर हिंदी शब्दकोष के भंडार की अभिवृद्धि की है।

  सबसे बड़ी संतति 'राजनीति' की तरह रिश्वत, मिलावट,चौर्य,गबन आदि भी उसके छोटे भाई-बहन हैं। छोटे इस अर्थ में हैं कि वे सभी राजनीति के उदर में समाए हुए हैं।कब कौन सा काम में लेना पड़े यह राजनीति और राजनेता ही जानता है।कहना यह चाहिए कि ये सभी उसी के वरद हस्त हैं। राजनीति की छत्र छाया तले पनपते ,फलते -फूलते और हँसते -मुस्कराते हैं। वैसे तो सब दूध के धोए हैं ,किन्तु जब पूँछ- प्रक्षालन होता है, तब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है।

 'तिकड़म' कभी भी सीधी अँगुली से घी निकालने में विश्वास नहीं करती।उसका यह अटूट विश्वास है कि घी को कभी सीधी अँगुली से निकाला ही नहीं जा सकता।उसके लिए अँगुली टेढ़ी करनी ही पड़ेगी। इस असार संसार में सबको जीना है,इसलिए तिकड़म भी आना चाहिए। बिना तिकड़म के आम आदमी जिंदा नहीं रह सकता। यह एक सर्वमान्य सिद्धांत बन गया है। जंगल में वही पेड़ पहले काटे जाते हैं ,जो सीधे होते हैं। सीधे और सरल आदमी का जीना तिकड़मबाज दुष्कर कर देते हैं। इसलिए सबको तिकड़म सीखना और उसका सदुपयोग करना भी आना युगीन आवश्यकता बन गई है। इस तिकड़म के चलते आम आदमी शुद्ध अन्न- पानी भी नहीं ले सकता। नीति -सुनीति भाड़ में झोंक दी गई हैं। बस अनीति का ही एकमात्र सहारा है, जहाँ तिकड़म का हरा- हरा चारा है।जहाँ तिकड़म नहीं, वहाँ मूर्खता की नीर -धारा है। तिकड़म के आगे भला कौन नहीं हारा है ! तिकड़म का एक नहीं, पैना तिधारा है। जो तिकड़म से दूर है,वही तो बेचारा है। 

 शुभमस्तु ! 

 10.04.2025●12.00मध्याह्न 

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तीर्थंकर भगवान महावीर [ दोहा]

 196/2025

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

तीर्थंकर       चौबीसवें,    महावीर भगवान।

वैशाली   गणराज्य   में, जन्मे  धीर महान।।

जन्मे   क्षत्रियकुण्ड   में,क्षत्रिय  था परिवार।

महावीर भगवान जी,महिमा अमित अपार।।


तीस   वर्ष   की  आयु में,त्याग दिया घरबार।

संन्यासी    के  रूप   में,  महावीर शुभकार।।

द्वादश वर्षों तक किया,कठिन साधना  यज्ञ।

पाया   केवलज्ञान   को,महावीर मति  विज्ञ।।


आयु   बहत्तर वर्ष की,मिला मोक्ष का लाभ।

महावीर   भगवान का,धन्य हुआ माँ-गाभ।।

बिम्बिसार  चेटक  सहित,अनुयायी भगवंत।

महावीर  के शिष्य थे, राजा कुणिक सुसंत।।


हिंसा पशुबलि  जातिगत, भेदभाव कर नष्ट।

महावीर   कल्याणकर,   हुए    हृदय  संतुष्ट।।

पंचशील   के   पाठ का,दिया सकल  संदेश।

महावीर   भगवान    ने, धरे  संत का    वेश।।


महावीर    भगवान  का, सबके लिए   समान । 

आत्मधर्म   कल्याणप्रद, मानव जीव  महान।।

'जिओ  और  जीएं सभी',  यह संदेश  महान।

महावीर   ने  विश्व  को,दिया महा शुभ  ज्ञान।।


सत्य    अहिंसा  पंथ  से, होता  जग -कल्याण।

महावीर   भगवान    की,   वाणी   देती  त्राण।।

शुभमस्तु !


09.04.2025●11.45आ०मा०

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सूरज आँखें दिखा रहा है [ नवगीत ]

 195/2025

  


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सूरज आँखें दिखा रहा है

धरती से नाराज बड़ा।


सिमट गई है  छाँव

पेड़ के पाँव तले

मुरझाए हैं गाँव

तपन के दाँव चले

कंकड़ डाले काग

भले जलहीन घड़ा।


पात - पात भयभीत

डाल को छोड़  मुआ

बिछा बिछौना एक

उगा अरुणिम अँखुआ

एक अकेला पेड़

धरा के बीच अड़ा।


गला माँगता अंबु

देह से स्वेद बहे

तड़प रहे खग ढोर

ताप से देह दहे

पथिक चाहता छाँव

झेलता कष्ट कड़ा।


शुभमस्तु !


09.04.2025●10.15 आ०मा०

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छाँव ढूँढ़ती छाँव को [ दोहा ]


194/2025

         

[ग्रीष्म,सूरज,अंगार,अग्नि,निदाघ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                 सब में एक

धरती  पर  क्रोधित  बड़े,सूरज देव सतेज।

चैत्र  और  वैशाख में, ग्रीष्म सनसनीखेज।।

छाँव   ढूँढ़ती  छाँव  को, अमराई  के  बीच।

ग्रीष्म तपे मधुमास में,जल भी नहीं नगीच।।


सूरज देव प्रत्यक्ष हैं,  जगती   के भगवान।

उनसे ही सब सृष्टि है,उन-सा कौन महान।।

सूरज दाता  अन्न   के, पोषक जीवन   - मूल।

उडुगण सोम प्रसन्न हैं,हर्षित कण- कण धूल।।


लगता   है  आकाश   से, बरस  रहे अंगार ।

रवि के प्रखर  प्रकोप  से,धरणि गई है हार।।

बिना  उपानह  पाँव भी, धरती  पर बदहाल।

परस लगे अंगार-सा,  बरस रहा ज्यों  काल।।


पाँच तत्त्व में अग्नि का, अति महत्त्व का काम।

फसल अन्न भोजन पके, चले  काम अविराम।।

जठर अग्नि   आहार का ,करती पाचन   पूर्ण।

दावानल  बड़वाग्नि  के, वन निधि में   आघूर्ण।।


अग्नि  बरसती  शून्य से,  तपने लगा  निदाघ।

शेर  छिपे  निज  माँद में, नहीं निकलते  बाघ।।

जेठ  और  वैशाख   में,जितना  तप ले  आग।

ये निदाघ  शुभकार   है, हरित बनेंगे   बाग।।


                  एक में सब

सूरज  ग्रीष्म   निदाघ के, बरस रहे  अंगार।

बिना लपट भी अग्नि का,प्रबल हुआ भंडार।।


शुभमस्तु!


09.04.2025● 3.45 आ० मा०

                          ●●●

[10:20 am, 9/4/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

मंगलवार, 8 अप्रैल 2025

छाया को भी छाँव चाहिए [गीत]

 193/2025

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


छाया को भी छाँव चाहिए

भले पेड़ छतनार।


दूर -दूर पसरा सन्नाटा

खड़ा एक ही पेड़

बैठे पालक और बकरियाँ

एक नदी की मेड़

चैत्र मास है तेज धूप ये

लेटी पाँव पसार।


उधर झाड़ियाँ

खड़ीं मौन हैं सूखे खेत अधीर

नहीं चहकते वहाँ पखेरू

धरती तपे अचीर

फिर भी देखो अजा पाल सब

मिल जुल बाँटें प्यार।


एक अकेला पेड़ छाँव का

करके  शुभकर दान

आ जाता जो शरण पेड़ की

बनता है मेहमान

भूभर में जलते हैं सबके

पाँव न   जूतादार।


शुभमस्तु !


08.04.2025●6.45 आ०मा०

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नौ दरवाजे सभी खुले [गीतिका]

 192/2025

         


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


 मनुज-  देह    दृढ़    एक   किला।

बड़े  भाग्य     से    तुम्हें      मिला।।


 नौ      दरवाजे       सभी     खुले,

एक      फूल    जो नहीं    खिला।


आए- जाए       श्वास        युगल,

होता     प्रतिक्षण   नहीं      गिला।


 उर    की    धड़कन   है    जीवन,

धड़-धड़  पल-पल   रहा    हिला।


जाग्रत      रसना      रुके      नहीं ,

नहीं   जीभ  का    भार     झिला।


आम    पिलपिला     हुआ   कभी,

वही    शाख  से    सदा      रिला।


'शुभम्'  नहीं     खो   नर    जीवन,

मनुज-योनि      है   एक   *तिला ।


*तिला= स्वर्ण।


शुभमस्तु !


07.04.2025●2.45आ०मा०

                 ●●●

मनुज देह दृढ़ एक किला [सजल]

 191/2025

 

समांत        : इला

पदांत         : अपदांत

मात्राभार     : 14.

मात्रा पतन   : शून्य


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


 मनुज-  देह    दृढ़    एक   किला।

बड़े  भाग्य     से    तुम्हें      मिला।।


 नौ      दरवाजे       सभी     खुले।

एक      फूल    जो नहीं    खिला।।


आए- जाए       श्वास        युगल ।

होता     प्रतिक्षण   नहीं      गिला।।


 उर    की    धड़कन   है    जीवन।

धड़-धड़  पल-पल   रहा    हिला।।


जाग्रत      रसना      रुके      नहीं ।

नहीं   जीभ  का    भार     झिला।।


आम    पिलपिला     हुआ   कभी ।

वही    शाख  से    सदा      रिला।।


'शुभम्'  नहीं     खो    नर    जीवन।

मनुज-योनि      है   एक   *तिला ।।


*तिला= स्वर्ण।


शुभमस्तु !


07.04.2025●2.45आ०मा०

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

अपनी ही लिखी किताबें [अतुकांतिका]

 190/2025

     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अपनी ही लिखी किताबों को

पढ़ने का आनंद

लिखने वाला ही जाने,

भले कुछ भी नया  न लगे

फिर भी एक नवल उल्लास है,

यह बात साधारण नहीं

लगती कुछ खास है।


लगता है कि इन्हें मैंने लिखा है

पर सच यही है कि

इन्होंने मुझे लिख दिया है,

मैं इनका विचार हूँ

शब्दों का आकार हूँ

यही मेरा जीवन हैं,

इनमें बसते हैं मेरे प्राण,

जो करते रहते हैं मेरा त्राण

नहीं बनने देते पाषाण।


आज डिजिटल किताब

मेरे हाथों में है,

उसका भी अपना संतोष है,

किंतु  वह बात नहीं

जो इन कागज की किताबों में है।


आइए हम इन किताबों का

अवमूल्यन न होने दें,

ये ज्ञान का लोक हैं

इन्हें अतीत में नहीं खोने दें,

यही वह पथ हैं

जिनसे चलकर 

जिन्हें जीकर 

हमने मंजिल पाई है।


शुभमस्तु !


03.04.2025●7.00प०मा०

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गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

क्षमता [ सोरठा ]

 189/2025

                 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


करता  है  जो   काम,अपनी क्षमता जानकर।

मिलता शुभ  परिणाम,  विजयश्री उसको वरे।।

करें  असंभव  काज, जो  नर क्षमतावान हैं।

सफल नहीं कल आज,क्षमता जो भूले सभी।।


भूल गए  हनुमंत, अति क्षमता की बात को।

ऋक्षराज - से   संत ,याद  दिलाई शक्ति की।।

तन-मन  से  बलवान,क्षमता नित्य बढ़ाइए।

बनें न  मूस  समान,अरि आए जो सामने।।


करना  तभी प्रहार,अरि की क्षमता जान  लें।

तब ही हो उपचार,शक्ति प्रथम अर्जित करें।।

लड़ें  न   उससे  मित्र,क्षमता में जो शेर  हो।

दुर्बल देह  चरित्र, वह क्षमता  में  क्षीण  है।।


सक्रिय  हो  हनुमंत, क्षमता अपनी जानकर।

किया   दशानन  अंत, गए  सिंधु के पार   वे।।

फिर भी  लड़ता  पाक,  जान रहा क्षमता नहीं।

नित्य    कटाए  नाक,  भारत   से संघर्ष   में।।


गुप्त रखें पहचान,मन  की  क्षमता की  सदा।

बड़ा रखें निज मान,अवसर को मत चूकिए।।

रहें    सदा   ही दूर, बालि सदृश बलवान  हो।

बनें    वहाँ   मत शूर, क्षमता  है  दूनी   जहाँ।।


मित्र   उठाएँ   भार,  क्षमता  जितनी  देह  में।

निश्चित हो तव हार,वरना विजय न मिल सके।।


शुभमस्तु !


02.04.2025●9.30प०मा०

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बुधवार, 2 अप्रैल 2025

शिवा करें कल्याण [ दोहा ]

 188/2025

         

[शिवा,शिवानी,शैलजा,ब्रह्मचारिणी,कुष्मांडा]

 

                     सब में एक

शिव की शक्ति प्रतीक हैं, शिवा करें  कल्याण।

अघ ओघों से मुक्त कर,जन-जन को दें त्राण।।

गिरिजा  दुर्गा  या  शिवा,शिव ऊर्जा  के नाम।

करें  जगत  कल्याण  वे,शुभ कैलास सु धाम।।


शंभु   शृंग    कैलास   पर, बसें शिवानी   संग।

षड्मुख  गणपति  साथ  में, सोह  रहे  वामांग।।

हुआ  शिवानी  भक्त  जो,बानक बना  अघोर।

अर्पित  है  शिव  भक्ति  में, धरता मौन  अथोर।।


माता       दुर्गा    शैलजा, ब्रह्मचारिणी   रूप।

सिद्धिदान   माता   करें,  सरस्वती शुभ    यूप।।

हिमगिरि  के  शुभ धाम  में,लिया मातु अवतार।

जगत   जपे   माँ  शैलजा, करें सदा   उद्धार।।


ज्ञान  त्याग  तप  भक्ति  का, पावन दुर्गा  रूप।

ब्रह्मचारिणी   नाम   है,पड़े न नर   भव  कूप।।

सौम्य  रूप   की  स्वामिनी,  त्याग तपस्यवान।

ब्रह्मचारिणी  शैलजा,  करें कृपा का   दान।।


दुर्गा    माँ   का  रूप है, कुष्मांडा  शुभ  नाम।

सिंहवाहिनी   लाल   पट,  धरे   हुए अभिराम।।

हलकी निज  मुस्कान  से, रचा सकल  ब्रह्मांड।

कुष्मांडा तन  भानु-सा,महिमा सदा अखंड।।


                  एक में सब

शिवा  शिवानी  शैलजा, ब्रह्मचारिणी   नाम।

कुष्मांडा नव  रूपिणी,  गिरि  कैलास   सुधाम।।


01.04.2025● 11.30 प०मा०

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रामनवमी [दोहा]

 187/2025

             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चैत्र  मास  शुभ वर्ष का, नौमी तिथि शुभ वार।

राम  जन्म   उत्सव  मना,शुक्ल पक्ष शुभकार।।

माँ   दुर्गा   को  पूजिए ,  नौ दिन पहला  मास।

नौवें  दिन श्री राम का,शुभ अवतरण  उजास।।


लिया   विष्णु   ने   चैत्र में, राम रूप  अवतार। 

चैत्र  सुदी  नवमी  बड़ी, पावन तिथि शुभकार।।

अवतारों    में   सातवाँ,   राम  रूप  है  एक।

कौशल्या  सुत विष्णु  हैं, ज्यों साक्षात विवेक।।


जो रमता कण- कण सभी,सकल सजी है सृष्टि।

उसी  राम  की  हो  रही, निशिदिन भारी वृष्टि।।

राम   रसायन   के  बिना,  नर जीवन   निस्सार।

हृदय  अयोध्या -   धाम   है, करें राम    उद्धार।।


आजीवन   रट  राम  को,  राम   नाम   है   नाव।

भव सागर   से   पार  हो, जपें सदा सत   भाव।।

रटते - रटते    राम    को, हो   जा  प्राणी   राम।

तिनका   हिले न एक भी,सफल न कोई  काम।।


सत्य    राम    का    नाम   हैं,  कहते  बारंबार ।

जब  जाता  तन  छोड़कर, पंछी पंख   पसार।।

उलटा   जपता  राम  जो,  उसका भी     उद्धार।

करते  हैं  प्रभु   राम  जी,  करके बिना   विचार।।


सत्य     सनातन  धर्म   में, त्रेता  युग  में    राम।

अवतारे    प्रभु   सत्य  की, रक्षा के कर   काम।।


शुभमस्तु !


01.04.2025● 10.00प०मा०

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कृपा तुम्हारी रहे अपार [गीत]

 186/2025

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दुर्गा दुर्गतिनाशिनी 

कृपा तुम्हारी रहे अपार।


शुम्भ निशुम्भ क्रूर महिषासुर

करते अत्याचार यहाँ

रक्षा करें मातु जग जननी

अघ ओघों से मुक्त जहाँ

अष्टभुजा वाहिनी उबारो

करें जगत उद्धार।


पर्वत पुत्री ब्रह्मचारिणी

 तुम ही गौरी सिद्धिप्रदा

शंभु प्रिया तुम ही रक्षक हो

चंद्रघंटिका तुम शुभदा

रमा सरस्वती कल्याणी

करती नित उपकार।


वासंतिक नवराते आए

होती परित: जय जयकार

तुम ही काली मातु भवानी

सभी दिशाएँ करें पुकार

जय माँ दुर्गे शेरा वाली

मिटें दानवी अत्याचार।


शुभमस्तु !


01.04.2025●4.30आ०मा० 

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...