सोमवार, 28 अप्रैल 2025

मानव तन में हैं जो गाली [गीतिका ]

 219/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मानव   तन   में   हैं  जो   गाली।

उन्हें   सोहती     केवल   नाली।।


रंग  हिना का   हुआ  न  हलका,

मिटी   माँग   अधरों की  लाली।


पहलगाम  की     काँपी    वादी,

थर - थर  काँपी   डाली - डाली।


बुझा  दिए  जिनके  कुल दीपक,

बजे न  घर में    शैशव  -  ताली।


तम  से  भरे    हृदय    थे  काले,

दृष्टि   हुई  आँखों    की   काली।


नहीं   खिलेंगे     होली   के   रँग,

नहीं  जलाए    दीप     दिवाली।


'शुभम्'  म्लेच्छ  की रक्त पिपासा,

भरी     उठाती    व्यंजन - थाली।


शुभमस्तु !


28.04.2025●2.00 आ०मा०

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