195/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सूरज आँखें दिखा रहा है
धरती से नाराज बड़ा।
सिमट गई है छाँव
पेड़ के पाँव तले
मुरझाए हैं गाँव
तपन के दाँव चले
कंकड़ डाले काग
भले जलहीन घड़ा।
पात - पात भयभीत
डाल को छोड़ मुआ
बिछा बिछौना एक
उगा अरुणिम अँखुआ
एक अकेला पेड़
धरा के बीच अड़ा।
गला माँगता अंबु
देह से स्वेद बहे
तड़प रहे खग ढोर
ताप से देह दहे
पथिक चाहता छाँव
झेलता कष्ट कड़ा।
शुभमस्तु !
09.04.2025●10.15 आ०मा०
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