216/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
मज़हब सिखा रहा है
करना है बैर जन से
कितना लहू बहा है
इंसानियत के तन से।
कभी नहीं सोचा था
कि होगी न वापसी यों
धिक्कार नराधमो रे!
क्या हस्र होंगे तेरे।
कश्मीर स्वर्ग था कब
यह जान नहीं पाया!
उस रक्तरंजित गोली का
राक्षस कभी अघाया?
किस ओर जा रहा है
ये देश का गद्दार आतताई
धिक्कार उस जननि को
कहता है जिसको माई!
प्रतिशोध ही प्रतिशोध हो
कुछ भी नहीं है सोचना,
गोली का जवाब गोला
जो गए न उनको लौटना!
शुभमस्तु !
24.04.2025●11.00आ०मा०
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