शनिवार, 19 अप्रैल 2025

समता [सोरठा]

 209/2025

                    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समता का क्या अर्थ,धरणी अंबर की कभी।

तर्क करें जन व्यर्थ,अलग-अलग आकार हैं।।

किंतु विषम है धर्म,समता की चाहत बड़ी।

करें   बराबर  कर्म, अपनाएँ  सब धर्म  भी।।


सब  समता  से दूर,पंचांगुलियाँ हाथ  की।

लगी  हुईं  भरपूर,  अपने-अपने कर्म  में।।

सबकी एक समान,संभव है समता नहीं।

सब ही श्रेष्ठ महान,काम अँगूठा जो करे।।


समता का कुछ मान,नहीं धनिक से भिक्षु की।

धनिक   दे   रहा  दान, भीख  एक है   माँगता।।

उचित नहीं है मित्र,समता -समता की   रटन।

अलग - अलग  हों इत्र,पाटल और धतूर  के।।


उचित न एक समान,समता बालक वृद्ध की।

पुरुष   धनुष  तिय  बान,नर से नारी भिन्न   है।।

अलग -अलग है मोल,राजा हो या रंक  हो।

ढपली   के  सँग ढोल,समता में मत तोलिए।।


समता   वाली  बात, बहुत  सुहानी ही  लगे।

अँधियारी   हो  रात, दिन  में  तेज प्रकाश  है।।

कहता भले विधान,समता के अधिकार को।

सबका है सम मान?क्या यथार्थ व्यवहार में।।


समता  का  अधिकार,करने को मतदान   ही।

विषम  रूप  उपहार,वरना देश समाज  में।।


शुभमस्तु!


17.04.2025●3.45प०मा०

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