गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

'इज्जतघर' की बात [ व्यंग्य ]



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✍️ लेखक ©


 🧸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'


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              अपनी -अपनी सबको प्यारी है। अब चाहे वह घरवाली हो अथवा इज्जत। हमारे यहाँ घरवाली को इज्जत का पर्याय भी माना जाता है।घरवाली से ही घर की इज्जत है। इसीलिए तो कहा गया है कि 'बिन घरनी घर भूत का डेरा।'जब वही नहीं तो आपको कौन पूछने वाला है भला !  इसीलिए तो यह भी कहा गया : ' लेखनी पुस्तिका नारि परहस्ते न दीयते।' अब यदि उसे कोई ले जाय या वह स्वतः चली जाए ,तो घर की इज्जत ही चली गई मानो। इसलिए इस 'इज्जत'  और उस 'इज्जत' दोनों का बहुत ही अनमोल महत्त्व है! इसकी रक्षा अर्थात इज्जत की रखवाली । इज्जत की रखवाली करना हर पुरुष का धर्म है। शादी से पहले वह कलाई में राखी बाँध कर इसकी रक्षा का वचन लेती है और शादी के बाद पतिगृह में  वही 'करवा चौथ 'बन जाता है ,मानो कह रही हो कि शादी से पहले तो पिता भाई ने उसकी और उसकी  इज्जत की रखवाली की अब तेरी बारी है , अब तू कर। इसीलिए तेरी बड़ी उम्र की कामना करती हूँ कि यदि तू रहा तो मुझे भी बचाएगा और मेरी अमूल्य 'इज्जत' को भी। 


                जब सरकार ने यह अनुभव किया औऱ देखा कि नारियों की 'इज्जत' पर डाका पड़ने के मामले थानों में भरे पड़े हैं,तो सरकार के कान खड़े होना स्वाभाविक था। कान ही नहीं , सरकार की आँखें भी खुलने लगीं और उसने यह महत्त्वपूर्ण निर्णय कर डाला कि अँधेरे- उजेरे  या रात में इज्जत की चोरी ही नहीं , डाके के मामले कुछ ज्यादा ही होने लगे , तो सोचा गया गाँव -गाँव में घर -घर में 'इज्जतघर' बनवा दिए जाएँ। योजना प्रारम्भ हुई औऱ वे बाकायदा बन भी गए। अब ये बात अलग है कि निर्माता कर्ता -धर्ता प्रधानों और सचिवों की मिली भगत के परिणाम ज्यादा सुखद नहीं रहे। मानो कुएँ में भाँग पड़ी हो। वही पीलिया ईंटें, नब्बे फीसदी बालू ,और सीमेंट का बघार लगाकर उन्हें नई नवेली दुल्हन की तरह चमका दिया गया। धक्का मार खनखनाते फाइबर या चद्दर के गेट में किवाड़ भी लगवा दिए गए। वैसे वे चाहते तो यही थे , कि इनमें किवाड़ों की जरूरत ही क्या है ! वे खुले खेतों में जाती/जाते हैं , उससे तो यह बिना किवाड़ के ही बेहतर हैं। पर योजना भी तो पूरी करके दिखानी थी ,सो वे भी अटका दिए गए। 


                   बन गए 'इज्जतघर'।अब बारी आती है उनका इस्तेमाल करने की। सो उनका इस्तेमाल न होना था , न हुआ , न हो रहा है और न ही होगा। गाँव के लोग आप शहरियों से कम अक्लमंद थोड़े होते हैं ! तो उन्होंने अपनी अति अक्ल मंदी का सदुपयोग किया औऱ अपनी -अपनी बुद्धि और अपने पाँव पसारने की सामर्थ्य के अनुसार किसी ने उनमें उपले, लकड़ी भर लिए, तो किसी ने स्नानागार बनाकर नहाना शुरू कर दिया। कुछ ज्यादा ही अक्लमंदों ने उनमें कुरकुरे , टेढ़े - मेढे , कोल्ड ड्रिंक , बीड़ी , माचिस , नमक ,मिर्च ,हल्दी, आलू ,अरबी ,गोभी ,मिर्च , धनियां, टमाटर की बहु उद्देशीय दुकानें ही खोल डालीं और ठाठ से मूँछों पर ताव देकर लाला बने आसीन हो गए। 


               और  उधर घर की 'इज्जतें'  आज भी घर के पिछवाड़े में लोटा लेकर ऊँची मेड़ों, मूँज, दाब, काश के झाड़ों के पीछे जगह तलाशती देखी जा रहीं हैं , जैसे वे 'इज्जतघर 'बनने से पहले आती - जाती थीं। कहीं कोई अंतर नहीं आया है।आंधी चले , तूफान आये, भीषण ठण्ड हो, तेज चिलचिलाती धूप पड़े,लेकिन उन्हें इसका कोई फर्क नहीं पड़ता । पहले की तरह आज भी यदि  कोई इधर - उधर आता -जाता दिख जाता हे , तो अपने मानवीय संस्कारवश वे उठकर खडी हो लेती हें   और फिर  अपने दैनिक कार्य -  निष्पादन में व्यस्त हो जाती हें ।मगर अपने 'इज्जत घरों'  की इज्जत को किसी प्रकार की दुर्गन्ध नहीं लगने देतीं ।'इज्ज्तघ'र तो 'इज्जतघर'  ही रहना चाहिए न ?  हमारी पुरानी खेतों में जाने की सभ्यता की  आदत इतनी जल्दी कैसे भुलाई जा सकती है  भला ? इस कम के लिए तो खेत ही भले !  जहाँ खाना बने , उसके पास ही पाखाना !  छि! छि!! छि! राम ! राम !! राम!!!   भला ये कैसे हो सकता हे? 


              इतना ही नहिं लाला जी बने हुए 'इज्जतघर' के इज्जत वाले भी वही कर रहे हैं , जो उनकी घर की 'इज्जतों'के द्वारा किया जा रहा है। कहीं -कहीं तो बने हुए 'इज्जत घरों'की इज्जत पर ही बन आई है। छत और दीवारें गिर चुकी हैं। किवाड़ भैसों की लड़ामनी या चारा ढँकने के काम आ रहा है।कहीं -कहीं छप्पर का काम भी लिया जा रहा है। 'इज्जतघर' के गड्ढे और सीट सब नदारद हैं। थानों में आज भी वैसे ही 'इज्जत '  पर डाके की    रपट लिखाई जा रही हैं औऱ ये 'इज्जतघर ' बाइज्जत या तो जमींदोज हो चुके हैं या स्टोर या दूकान बने हुए लालाजी जी कमाई का घर बने हुए हैं।  


💐 शुभमस्तु !


 01.10.2020 ◆3.00अपराह्न।

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