शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

आज भी है मुझे प्रायश्चित! [ संस्मरण ]


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 ✍️लेखक ©

 🔰 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम

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               जीवन में कभी-कभी कुछ अप्रत्याशित इस तरह से घटित हो जाता है कि मनुष्य पहले से सोचता भी नहीं है कि ऐसा भी हो सकता है, जिसका जीवन भर प्रायश्चित बना रहता है।प्रायश्चित के अतिरिक्त अन्य कोई समाधान नहीं है और इस प्रायश्चित के द्वारा वह अघटनीय का ध्यान सदैव कचोटता रहता है।सम्भवतः यही उसका एक दंडविधान भी है। यह बात यद्यपि बहुत छोटी-सी है ,किन्तु मेरे मानस पटल पर कुछ ऐसा बिम्ब बनाए हुए रहती है कि उससे मुक्त नहीं हो पाता । 

        36 वर्ष पूर्व सन 1984 में मैं राजकीय महाविद्यालय, जलेसर एटा में हिंदी विभाग में रीडर के पद पर कार्यरत था। बरसात के दिन थे ,किन्तु बरसात नहीं हो रही थी। अगस्त के महीने के किसी दिन मैं प्रातः लगभग साढ़े नौ बजे महाविद्यालय जाने के लिए ऊपरी मंजिल पर बने घर की सीढ़ियों से उतरकर सड़क पर बाहर आया और पैदल ही चलने लगा।महाविद्यालय घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित था ,इसलिए समय से पहुँचने के लिए आधा घण्टा पूर्व निकलना होता था। अभी मुशिकल से पचास कदम ही आगे बढ़ा था कि सामने से चले आ रहे एक रिक्शेवाले ने अपना रिक्शा मेरी दोनों टाँगों के बीच में घुसा दिया। मैं सफेद रंग की पेंट और सफ़ेद कमीज़ पहने हुए था। जैसे ही रिक्शे का अगला आधा कीचड़ से सना पहिया टाँगों से पार हुआ, मेरा पेंट उससे सन गया ।फिर क्या मेरा क्रोध सातवें आसमान की बुलंदियों का स्पर्श करने लगा। 'क्या तुझे दिखाई नहीं देता तुझे?' मैंने रिक्शेवाले को जिस तेजी से कहा ,उसी तेजी के साथ आव देखा न ताव ,दो थप्पड़ उसी कनपटी पर रसीद दिए ।

          वह कुछ बोला भी नहीं और तुरंत ही मैं उल्टे पाँव घर की ओर कपड़े बदलने के लिए लौट पड़ा। शीघ्र ही कपड़े बदले और पुनः कालेज की ओर चल पड़ा।लेकिन रास्ते भर यही सोचता रहा कि क्या मुझे इस तरह रिक्शेवाले को मारना चाहिए था ? भूल इंसान से ही होती है। उसने कोई जानबूझकर कपड़े खराब नहीं किए थे। इसलिए मुझे उसे मारना नहीं चाहिए था। मुझे लगा कि मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है। पर अब किया भी क्या जा सकता था ! तीर कमान से निकल चुका था। मुँह से निकली ज़ुबान औऱ कमान से निकला बाण पुनः लौटकर नहीं आते।यही बात रहकर रह कर मेरे मानस पटल पर छा गई थी। 

           आज भी जब उस दिन का स्मरण होता है तो मुझे वही प्रायश्चित बार -बार होने लगता है कि मुझे उस रिक्शेवाले को थप्पड़ नहीं मारने चाहिए थे।वह एक मानवीय भूल थी। उस छोटी- सी घटना की स्मृति अभी भी मुझे कचोटती है और मैं अपने को क्षमा नहीं कर पाता हूँ। पता नहीं वह अनाम रिक्शेवाला आज कहाँ होगा?होगा भी या नहीं होगा! पर मैं उसकी स्मृति से मुक्त नहीं हो पाता हूँ। 

 💐 शुभमस्तु ! 

 31.10.2020◆3.15 अपराह्न।

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