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✍️ शब्दकार ©
🔱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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ताजमहल का नाम सुनकर चौंकिएगा नहीं।इस नाम को सुनकर चौंक जाना स्वाभाविक है। कहाँ विश्वप्रसिद्ध ताजमहल और कहाँ मैं ? भला ऐसा भी कहीं हो सकता है कि मैं कोई ताजमहल खड़ा कर सकूँ! यह बात है तो ताजमहल की ही ,पर उस ताजमहल की नहीं है ,जिसका नाम कानों में पड़ते ही सफ़ेद संगेमरमर से बनी भव्य और उच्च इमारत का बिम्ब मस्तिष्क पटल पर अंकित हो जाता है।इस संस्मरण में जिस ताजमहल के निर्माण की चर्चा की गई है ,वह मेरा अपना छोटा - सा ताजमहल है ,जिसमें नीचे से ऊपर तक कुल एकादश मंजिलें हैं।
मेरा 'ताजमहल' किसी प्रेयसी की प्रेरणा स्वरूप नहीं लिखा गया। उस समय मैं बी.एस सी. उत्तीर्ण करने के बाद हिंदी में एम.ए.पूर्वार्द्ध का विद्यार्थी था।अविवाहित था। मेरी अवस्था का 23वां वर्ष चल रहा था।23 सितंबर 1974 की रात की बात है।समय रात के 2 और 3 बजे के मध्य का रहा होगा। उस समयावधि में मेरे द्वारा एक विचित्र स्वप्न देखा गया,जो मेरे खण्डकाव्य 'ताजमहल' की प्रेरणा का कारण बना। यों तो काव्य रचना करते हुए मुझे ग्यारह वर्ष व्यतीत हो चुके थे। इससे भी तीन वर्ष पूर्व महाकाव्य 'तपस्वी बुद्ध' भी पूर्ण कर चुका था। किंतु इस खंडकाव्य की प्रेरणा कुछ विचित्र प्रकार की थी।
यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना भी उचित होगा कि विश्व प्रसिद्ध ताजमहल की दूरी मेरे गाँव से लगभग 15 -16 किलोमीटर होगी। बरसात के दिनों में आकाश स्वच्छ औऱ निर्मल रहने के कारण हम गाँव से ही ताजमहल देख लिया करते थे। एक दो बार ताजमहल को देख भी चुके थे। अपने स्वप्न में मैंने देखा कि मेरे ही गाँव का एक परिचित व्यक्ति उस भौतिक ताजमहल की इमारत पर चढ़ने का प्रयास कर रहा है । बहुत ही जिज्ञासा पूर्वक मैं उसे आरोहण करते हुए देख रहा हूँ। स्वप्न में देखा गया ताजमहल भौतिक ताजमहल से सर्वथा भिन्न अलौकिक और अवर्णनीय था। प्रथम सर्ग का श्रीगणेश इस प्रकार किया गया है:
अर्द्ध क्षणदा थी कोमल कांत, जा रही स्मित - सी चुपचाप।
कदम उठने पर पायल-नाद, नहीं होती तृण भर पदचाप।।
इसी प्रकार के 34 छंदों में प्रथम सर्ग पूर्ण हुआ है।इसी प्रकार के दस सर्ग भी लिखे गए हैं। प्रातःकाल उठने पर 'प्रेम ' शीर्षक से एक कविता लिखी ,जो मुझे बहुत ही प्रिय लगी और उसको लिखने के बाद मानो मेरी कल्पना को पंख लग गए और एक पर एक रचनाएँ लिखने का अनवरत क्रम प्रारम्भ हो गया।एक सप्ताह तब हुआ कि निरंतर लिखते हुए ग्यारह सर्गों में निबद्ध एक खण्डकाव्य तैयार हो गया।
वर्ष 2008 में इस खण्डकाव्य का प्रकाशन सम्भव हो सका।इस काव्य को बार -बार पढ़ना और पढ़कर सुनाना मुझे बहुत ही प्रिय रहा है। 24 सितंबर 1974 को पहली रचना ,जो उसके प्रथम सर्ग के रूप में है ,लिखी गई। ऐसा लगने लगा कि इस विषय पर बहुत कुछ लिख सकता हूँ। और वह लिखा भी गया ,पूरा भी हुआ, प्रकाशित भी हुआ।भले ही लिखने के 34 वर्ष बाद हुआ ।
मेरा 'ताजमहल' मेरी पसंद की सर्वप्रिय रचनाओं में से एक है।यों तो 'निज कवित्त केहि लाग न नीका। सरस् होउ अथवा अति फीका।' यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना भी समीचीन होगा कि इस खण्डकाव्य में ताहमहल को प्रेम का प्रतीक नहीं माना गया। मेरे द्वारा उन अनाम वास्तुविदों की अमर कला साधना का प्रतीक माना गया है , जिसके कारण उनके हाथों को शाहजहां द्वारा कटवाया जाना चर्चित है। अनेक नाटकीय बिम्बो के माध्यम से रचना को गति प्रदान की गई है । संभवतः यही रचना का मूल है। वही इसकी मूल प्रेरणा है। स्वप्न पर आधारित यह कृति अपनी मौलिकता में अपने ही प्रकार की है। रचना के समीक्षक ही इसका सही मूल्यांकन कर सकते हैं। तो यह है मेरा अपना 'ताजमहल' और उसकी प्रेरणा ।
💐 शुभमस्तु !
09.10.2020◆6.00अपराह्न।
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