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✍️ शब्दकार©
⛺ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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'इज्जतघर' की लुट रही,इज्जत चारों ओर।
लोटा लेकर जब चले,हुआ गाँव में भोर।।
'इज्जतघर' में खुल गई, एक नई दूकान,
बीड़ी, माचिस भी मिले,बाँट ईंट के फोर।
'इज्जतघर'में चाय भी,मिलती प्रातः शाम,
बिस्कुट औ'नमकीन भी,मचा गाँव में शोर।
उपले ,ईंधन भर रहे,'इज्जतघर' के बीच,
कहीं कबाड़ा सोहता,मनमानी का जोर।
नित्य नहाने के लिए ,'इज्जतघर'है खूब,
खाट खड़ी करनी नहीं,वर्षा हो घनघोर।
पहले 'इज्जतघर' नहीं,थे जब अपने गाँव,
तब भी जाते खेत में,खोज आड़ की कोर।
ओट मूँज की देखकर,या मेंड़ों की ओट,
जाते नर -नारी सभी, मिलते इज्जत- चोर।
पीली ईंटों से चुनी, 'इज्जतघर '- दीवार,
खुशबू भी सीमेंट की, बालू में है थोर।
सचिव और मुखिया मिले, करते बंदर बाँट,
'इज्जतघर, कैसे टिकें, चालबाज घनघोर।
💐 शुभमस्तु!
02.10.2020◆7.00अपराह्न।
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