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✍️ शब्दकार ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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-1-
'इज्जत'बाहर चल पड़ी,लेकर लोटा हाथ।
अवगुंठन झीना सजा,माँग भरा ढँक माथ।।
माँग भरा ढँक माथ, गई घर के पिछवाड़े।
ढूँढ़ रही है ओट, धूप, वर्षा या जाड़े।।
शुभं खेत की मेंड़,मूँज की झाड़ी सज्जित।
'इज्जतघर'को छोड़,खेत में जाती 'इज्जत'।
-2-
सारे 'इज्जतघर' बने, लाला की दूकान।
बिकते टॉफी, कुरकुरे,घर भर के सामान।।
घर भर के सामान, दाल,सब्जी ,गुड़ ,आटा।
'इज्जत' जाती खेत,भरे सरपट सर्राटा।।
'शुभम'मेंड़ की आड़,उदय जब नभ में तारे।
जाते घर के लोग,छोड़ 'इज्जतघर' सारे।।
-3-
उपले,ईंधन भर दिए, 'इज्जतघर' की शान।
'इज्जत' खेतों में चली,या घर के महमान।।
या घर के महमान, बाल-बच्चे, नर, नारी।
ढूँढ़ मूँज की आड़ ,आज भी है लाचारी।।
'इज्जतघर' हैं बंद, खुले में कैसे ढँक ले।
उठती बारम्बार, भरे 'इज्जतघर' उपले।।
-4-
अपनी इज्जत ली बना,साहब सचिव प्रधान।
बालू में ईंटें चिनी, पीली, ठगा किसान।।
पीली, ठगा किसान,पड़ा सीमेंट नाम का।
जैसे लगा बघार,नहीं यह किसी काम का।।
'शुभम' बनाए दाम,और छत भी तो पटनी।
'इज्जतघर' का नाम,सजा लीं जेबें अपनी।।
-5-
'इज्जत' जाती खेत में, 'इज्जतघर' है बंद।
कंडे, लकड़ी हैं भरे ,मालिक है स्वच्छन्द।।
मालिक है स्वच्छन्द, दुकानें वहाँ सजा दीं।
थर-थर कँपे किवाड़,सचिव की बढ़ती वादी।
'शुभम' ढूँढ़ते झाड़,टपकती टपटप है छत।
देख न पाए और, वसन से ढँक ली इज्जत।।
-6-
बैठी झाड़ी -ओट में ,चौकस हैं दो नैन।
राहगीर को देखकर, हो जाती बेचैन।।
हो जाती बेचैन, ढाँकती कसकर नीचे।
उठ जाती अविलंब,लाज से अँग को भींचे।।
'शुभम' बड़ी लाचार, बहू दिवरानी जेठी।
'इज्जतघर' को छोड़,ओट में सिमटी बैठी।।
-7-
करने देह-नहान को,अब तक थी बस खाट।
'इज्जतघर 'जब से बने, खत्म हो गई बाट।।
खत्म हो गई बाट, बंद कर द्वार नहाती।
धन्यभाग सरकार, बहुत ही नारि सिहाती।।
'शुभम' सही उपयोग,नहीं कर, देते धरने।
जाती हैं वे खेत, शौच ओटों में करने।।
💐 शुभमस्तु !
02.10.2020◆7.00पूर्वाह्न।
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