शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

ऐ ज़िंदगी!कमाल है तेरा भी !! [ व्यंग्य ]



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 ✍️लेखक © 


 🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'


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                 ऐ जिंदगी ! तुम भी कमाल करती हो ! मज़ाक करती हो,आदमी के साथ? यदि आदमी अपने भविष्य की ओर देखे तो भले ही वह पैंतीस साल का युवा होने पर भी बच्चा ही रहेगा ! और यदि पीछे की ओर मुड़कर देखने लगे तो बूढ़ा हो गया ? वाह ! री जिंदगी वाह ! तेरा भी कमाल है!  


            तू युवाओं से कहती है कि अपना आज देख ।अपना वर्तमान देख। अंधा हो जा । जीवन के ऐसे राग - रंग और खिलंदड़ी का अवसर फिर नहीं आ जायेगा,इसलिए किसी भी क्षण को चूके मत। हर क्षण का भरपूर उपभोग कर ले। फिर पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत! इसलिए अपने यौवन में अंधा हो जा। आगा -पीछा मत निहार। आगे देखेगा तो बच्चा! और पीछे झाँकेगा तो बुड्ढा घोषित कर दिया जाएगा। इसलिए अंधा होकर विलासिता की नदी में गोते लगा। डूब जा ,तैर ले और आ सके तो किनारे पर लौट कर आ जा। यही तो यौवन की रंगीनी है, जो केवल आज को ही देखती है। कल क्या होगा ,नहीं सोचती। 


                उधर किसी बच्चे को तो अपना वर्तमान देखने का अधिकार ही तू नहीं देती।फिर वह बच्चा कहाँ रहा ?वयस्क हो गया । तू अभी बच्चा है ,इसलिए अपने भावी जीवन की सोच। उसी को सींच। तेरे पीछे तो कुछ है ही नहीं ,इसलिए मुड़कर देखने के लिए तेरे पास कुछ शेष नहीं है। तू अभी बच्चा है!बूढ़ा नहीं। ये काम तो बूढ़े करते हैं।तू अपने बचपन के खेल खेल ।अभी से क्यों बनाता है  इस बचपन को जेल ।ये तेरे झेलने के दिन नहीं , खेलने के दिन हैं । फिर  तो सारी जिन्दगी  चकिया चलानी है ।


                  यदि किसी साठ साला ने अपने भविष्य या वर्तमान की ओर भूलवश नज़र भी डाल दी , तब तो गज़ब होने में कोई कमी नहीं रहेगी। समाज, देश औऱ दुनिया की नज़र में बदनाम ही हो जाएगा! 'अच्छा!तो बुड्ढे के सींग निकल आए हैं। फिर से जवान हो रहा है।' इस तरह के दुर्वचन प्रायः सुनने को मिल जाएंगे।बूढ़े अपने बूढ़ेपन की सीमा में रहें ,तो गनीमत अन्यथा समाज के लांछन - बाणों से घायल होने में देर नहीं लगने वाली ! यदि उसने आगे बढ़कर झाँक भी लिया तो जैसे घर और बाहर आग ही लग जायेगी।इसलिए सींग कटवाकर बछड़ा बनना बड़ा ही खतरनाक खेल है।


          बूढ़ों का तो जैसे कोई मन ही नहीं है।जो बूढ़ा डाल-डाल औऱ पात -पात पर धमा-चौकड़ी मचा चुका है ,उसे जमाना मूर्ख समझता है।वह केवल अपने अतीत की रंगीनियों में चाहे पाप करे या पुण्य ,सब क्षम्य है। क्योंकि वे किसी को दिखाई नहीं देते। कल का युवा ही आज का बूढ़ा है। उसकी ओर इतनी हेय दृष्टि ! अरे जिंदगी !! यह तो कोई अच्छी बात नहीं है। जब दाँत थे , तब चने नहीं थे और जब दाँत नहीं रहे, बे -दाँत हो गए तो चनों के दर्शन नहीं। यह वेदांत दर्शन ही बुढ़ापा है।यौवन में दाँत तो थे , पर चने ही नहीं थे,क्या चबायें? दूध के दाँत तो कुछ भी चबाने के लिए व्यर्थ ही रहे। 


              जीवन कैसे - कैसे विरोधाभासों का नाम है! बचपन ,यौवन और बुढ़ापा ।पता नहीं ऐ ज़िंदगी! तूने हमें किस पैमाने से नापा! कभी तो याद रहे मम्मी! मम्मी!!पापा !पापा!! और कहीं भूल बैठा अपना आपा। मचाने लगा आपा -धापा। और अंत में न पापा ! न  आपा ,न अपनापा , जब गात बुरी तरह काँपा, बचा रह गया सिर्फ़ एक स्यापा! जिसका नाम रख दिया गया बुढ़ापा। 


 💐 शुभमस्तु ! 


 23.10.2020 ◆7.35 अपराह्न।

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