रविवार, 20 दिसंबर 2020

मखमल के तले [ अतुकान्तिका ]


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार©

🪘 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

दुम हिलाने के लिए

यहाँ वहाँ कुत्ते,

खोंखियाने के लिए

बंदर सदा  ताते,

दहाड़ने के लिए

वनराज शेर,

देखना है यदि

कहीं अंधेर,

तो आइए देखिए

सियासती बेर,

जनता की देह के

पल्लव केर।


हंस भी

कौवे भी,

डराते हुए रोज़

हौवे भी,

नहीं लड़ते चुनाव

हंस कभी,

सताते रहे हैं

सदा रावण,कंस सभी,

नहीं रही आँखों में

जिनके लेश भर नमी,

प्रकाश का अभाव ही

अँधेरा है,

पुण्य का अभाव

पाप का बसेरा है।


अस्तित्व है

पिपीलिका का

मूषक का,

खटमल का  या मच्छर का

रसक्तचूषक का,

सहजीवन का

विचित्र संयोग,

मानव - शरीर  में

गिद्ध  भी तो हैं,

विनम्र भले लोग

उनसे बिद्ध ही तो हैं!



सियासती मखमल तले

छिपी लीद की ढेरी,

चादर जो हटी तो

नहीं मेरी !नहीं मेरी!!

चाहिए सबको तरक्की

मखमल को ओढ़कर,

मुखौटों के नीचे

छिपे चेहरों को छोड़कर।


कंचन कामिनी की सीढ़ियां

चढ़ती रहीं जिनकी पीढ़ियाँ,

उनको क्या समझेंगी!

अतीत की बूढ़ियाँ!

कल के बंदर

आज भी हैं बंदर ही,

नचा रहे द्वार -द्वार

'शुभम' हैं तो 

ठेठ कलंदर ही!


💐 शुभमस्तु ! 


17.12.2020◆7.15 अपराह्न।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...