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©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
-1-
करना हो उपकार तो, उर हो महा उदार।
हित सीमा वर्द्धन करें, तब हो पर उपकार।।
तब हो पर उपकार,सभी को अपना जानें।
खींचें उतनी डोर, नहीं सीमाधिक तानें।।
'शुभम्' यही है धर्म, जीव हित जीना - मरना।
निश्छल हों तव कर्म,सदा शुभ चिंतन करना।।
-2-
मानव - तन दुर्लभ सदा,रखना उसका मान।
जीवों का उपकार कर,विस्तृत बना वितान।।
विस्तृत बना वितान, पेट भर लेते कूकर।
खाते सदा अखाद्य , गली में भटके सूकर।।
'शुभम्' करे जो दान,नहीं जो मन से दानव।
मानव वही महान, कर्म से बनता मानव।।
-3-
आया तू संसार में, धर मानव की देह।
लख चौरासी योनियाँ, करके पार स - नेह।।
करके पार स-नेह, बहुत दुर्लभ नर- देही।
कर ले पर उपकार, बने जन-जन का नेही।।
'शुभम्' न बार हजार, मिले तन तू पछताया।
कृमि खग सूकर योनि,अभी नर तन में आया।।
-4-
जीना वह जीना नहीं, किया नहीं उपकार।
मुख से भाषण भौंकता,जैसे श्वान सियार।।
जैसे श्वान सियार, नहीं उपकार किया है।।
भरता अपना पेट , नहीं सेवार्थ जिया है।।
'शुभम्' स्वार्थ के हेतु,जन्म भर परधन छीना।
श्रेष्ठ अन्य सब जंतु, जानते परहित जीना।।
-5-
पारस तन तुझको मिला, जाना नहीं महत्त्व।
लोहे से सोना बने, शोभन सकल गुणत्व।।
शोभन सकल गुणत्व,मनुज उपकार न करता।
भूल कर्म का धर्म,प्राण धन जन के हरता।।
'शुभम्' भेद पहचान, नहीं तू बगुला सारस।
लगी मत्स्य पर दृष्टि, बनाकर भेजा पारस।।
शुभमस्तु !
26.04.2024●8.00आ०मा०
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