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©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
चाय खौलने लग गई, इधर जेठ वैशाख।
सूरज का पारा चढ़ा,कृष्ण चंद्र का पाख।।
चीनी पड़ी न चाय में, भरती चाय उबाल।
बिना दूध कैसे पिएँ, दूषित रूप जमाल।।
नेता अपनी केतली, लिए खड़े हर द्वार।
कोई तो आकर पिए,चाय पुनः इस बार।।
स्वाद बदलने की बड़ी,इच्छा मन में मीत।
दूध नहीं इतना मिला,मिले चाय को जीत।।
अलग-अलग खोखे खड़े, बेचें अपनी चाय।
ग्राहक मीलों दूर से, करता है क्यों बाय??
वर्षों से जो पी रहे, राजनीति की चाय।
कष्ट वही अब दे रही, निकले मुख से हाय।।
चाँय-चाँय चिल्ला रहे, जनता सुने न बात।
मन में क्या उसके लगी, छाई काली रात।।
सपने मीठी चाय के, दिखलाते नित लोग।
स्वाद नहीं अब दे रही, करती नहीं निरोग।।
ग्राहक चतुर सुजान है,हित अनहित की बात।
जान रहा वह चाय से,जलता अंतर गात।।
भोले का मतलब नहीं, समझे कोई मूढ़।
भेड़ नहीं जनता यहाँ, बने चाय की रूढ़।।
पिया चाय के रूप में, मीठा जहर सदैव।
खूबी खामी जानते, ठग न सकोगे नैव।।
रंग चाय का अब नहीं,जो था बीते काल।
बदल वेश अब घूमते, जैसे भैंस- दलाल।।
शुभमस्तु !
28.04.2024●9.15 प०मा०
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