बुधवार, 24 अप्रैल 2024

कीचड़ - साधना [व्यंग्य ]

 184/2024

            


© व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कीचड़ मानव - समाज की एक आवश्यक आवश्यकता है।कीचड़ के बिना मानव के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।  इसलिए जहाँ - जहाँ मनुष्य ,वहाँ-वहाँ कीचड़ भी एक अनिवार्य तत्त्व है।क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर नाम के पंच महाभूतों की तरह 'कीचड़' भी उसका अनिवार्य निर्माणक है।कीचड़ का घनिष्ठ संबंध केवल सुअरों से ही नहीं है,मनुष्य मात्र से भी उतना ही आवश्यक भी है।आप सब यह अच्छी तरह से जानते हैं कि कमल कभी स्वच्छ निर्मल जल में जन्म नहीं लेता। उसके जन्म लेने के लिए कीचड़ का होना या उसे किसी भी प्रकार से पैदा करना आवश्यक होता है। आप यह भी अच्छी तरह से जानते होंगे कि किसी भी वैज्ञानिक ने आज तक प्रयोगशाला में कृत्रिम कीचड़ नहीं बनाया।प्रयास तो अनेक बार किया गया,किन्तु मनुष्य अभी तक सफल नहीं हो पाया।इससे यह भी स्प्ष्ट होता है कि कीचड़ पैदा करना सबके वश की बात नहीं है।

       आपको यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता और देशाभिमान होगा कि हमारे यहाँ कीचड़ -जनकों की कोई कमी नहीं है। यहाँ कीचड़ जन्म से लेकर कीचड़ फैलाने वालों की बड़ी संख्या है।जो कीचड़ निर्माणक अथवा जनक तत्त्व हैं,उन्हें कीचड़ की गंध भी बहुत ही प्रिय है।वे अहर्निश आकंठ कीचड़ाबद्ध रहना चाहते हैं।  यहाँ कुछ ऐसे 'महाजन' भी हैं,जिनकी  बिना कीचड़ में लिपटे हुए साँस घुटने लगती है। उन्हें लगता है कि उनके प्राण अब गए कि तब गए।उनका कीचड़- प्रेम ठीक उसी प्रकार का है ,जैसे जल के बिना मीन ,वैसे ही उन्हें लगता है कि बिना कीचड़ कोई लेगा उनके प्राणों को छीन, इसलिए वे रात - दिन कीचड़ में रहते हैं सदा लवलीन।तथाकथित का यह महा कीचड़ - नेह जगत -प्रसिद्घ है।यह अलग बात है कि उनमें कोई रक्त पिपासु मच्छर- बन्धु है तो कोई नर माँसाहारी गिद्ध है।मानना यह भी पड़ेगा कि कीचड़ के दलदल के वे मान्यता प्राप्त चयनित सिद्ध हैं।

आप भले ही यह कहते रहें कि आपको कीचड़ की महक जरा - सी भी नहीं सुहाती। देखकर कीचड़ का अंबार आपको मितली - सी आती।अरे बंधुवर ! यह तो अपनी-अपनी पसंद की बात है।बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद ! यदि कीचड़ -गंध आपको जरा भी न सुहाए तो उचित है यही की आप दूर ही अपना आशियाँ बनाएँ। ये वे बाईस पंसेरी वाले धान नहीं हैं ,जो हर कोई पचा पाए ! 

कीचड़ के अनेक नाम हैं।जैसे पंक,कीच आदि। यह पुरुष भी है और स्त्री भी ।यों कहिए कि यह उभयलिंगी है ,क्योंकि यह अपनी संतति पंकज का पिता भी है और जननी भी। तारीफ़ कीजिए उन कीचड़ -प्रेमियों की ,उनके महा धैर्य की कि उसकी संतति के जन्म की प्रतीक्षा में वे जीवन लगा देते हैं,किन्तु कभी कभी तो कमल कभी खिलता ही नहीं,उन्हें उनकी साधना का सुफल मिलता ही नहीं।साधना हो तो ऐसी ,जैसी एक कीचड़-प्रेमी करता है।इसीलिए कोई- कोई तो आजीवन चमचा बन अपने वरिष्ठों का हुक्का ही नहीं पानी भी भरता है।पर कमल तो कमल है,जो जब खिलता है तभी खिलता है,हर दलदल में कलम कहाँ खिलता है ! हाँ,इतना अवश्य है कि इंतजार का फल मीठा होता है,तो उनके लिए कीचड़ भी  माधुर्य फलदायक बन जाता है  और उनके परिवेश को महका  -  महका जाता है।अपने सु मौसम के बिना कोई फूल नहीं खिलता है ,तो कमल को ही क्या पड़ी की बेमौसम खिल उठे,गमक उठे और उनके लक्ष्मी - आसन पर प्रतिष्ठित हो सके।

व्यक्ति के धैर्य की परीक्षा का नाम है कीचड़। जो रंग में भले काला हो, बदबू वाला हो, किन्तु धर्म के दस लक्षणों में उसका स्थान पहला ही है।इस प्रकार अन्य प्रकारेण कीचड़ धर्म का एक लक्षण ही हुआ।जहाँ कीचड़ वहीं पंकज।उदित होता है भोर की किरण के साथ सज -धज। इसलिए हे बंधु ! तू  कीचड़ ,कीचड़, कीचड़ ही भज। कीचड़ को कभी भी मत तज। कीचड़ से ही तो तू होगा पूज्य ज्यों अज।बलि का अज (बकरा) बनने से बच जाएगा,यदि पूर्ण श्रद्धापूर्वक कीचड़-साधना में रम जाएगा।कीचड़ पंथियों के लिए कीचड़ -साधना अनिवार्य है।बस लगे रहें,डटे रहें,सधे रहें।बारह साल बाद तो घूरे के भी दिन बदलते हैं,तो आप किसी घूरे के अपवाद भी नहीं। यदि रखोगे स-धैर्य विश्वास तो तो कीचड़ में भी कमल भी खिलेंगे हर कहीं। कीचड़ -साधना क्यों ? एक उम्मीद की ख़ातिर, एक विश्वास के लिए, एक सु -परिणाम के लिए।बिना कीचड़ -साधना के पन्थी जिए तो क्या जिए?

शुभमस्तु !

24.04.2024●9.45 आ०मा०

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