177/2024
[ग्रीष्म,सूरज,अंगार,आतप,अग्नि]
सब में एक
वासंतिक वेला विदा, लुएँ छेड़तीं राग।
बरस रही चहुँ ओर है,ग्रीष्म तपन की आग।।
अमराई की छाँव में, महक रहे हैं बौर।
बढ़े टिकोरे डाल पर, बढ़ा ग्रीष्म का दौर।।
धरती से अति क्रुद्ध क्यों,सूरज देव महान।
अभी चैत्र मधुमास है, करते तेज प्रदान।।
सूरज सारी सृष्टि का,पालक पोषक एक।
कभी शीत मधुमास है,पावस धार अनेक।।
जेठ मास में शून्य से, बरसें ज्यों अंगार।
जीव-जंतु पीड़ित सभी, जल की करें गुहार।।
कड़वे मानुस - बोल भी, लगते उर अंगार।
प्रिय विनम्र हो बोलिए, सत्य वचन उद्गार।।
यौवन - आतप देह का, सहना दुष्कर कार्य।
कदम न भटकें राह में, होता यह अनिवार्य।।
आतप मास निदाघ का,पावस का शुभ हेतु।
तीव्र ताप ही मेघ का, बनता शोभन सेतु।।
पंच भूत में अग्नि का, होता विशद महत्त्व।
जठर वनज बड़ावाग्नि के,रूप त्रयी शुचि तत्त्व।।
अग्नि बिना जीवन नहीं, पूरक पोषक नेक।
पंच तत्त्व शुचि सार हैं ,सोचें जन सविवेक।।
एक में सब
सूरज - आतप ग्रीष्म में,लाया भर अंगार।
अग्नि बरसती शून्य से, त्राहि करे संसार।।
शुभमस्तु !
17.04.2024●11.30आ०मा०
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