181/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
कीचड़ बड़ी चमत्कारी है।
लगातार भू पर तारी है।।
महक रही तन - मन में ऐसे,
जन - जन में होती भारी है।
कहते लोग कमल की जननी,
मान रही दुनिया सारी है।
'भक्तों' की आँखों में कीचड़,
भर देती नव उजियारी है।
कानों में भी कीचड़ काली,
बजा रही ध्वनि नित न्यारी है।
दिल - दिमाग कीचड़ से लिथड़े,
दुश्मन को पैनी आरी है।
कीचड़ - पूजा में रत चमचे,
पता नहीं किसकी बारी है।
कीचड़ खाते सूँघें कीचड़,
कोटि- कोटि को अति प्यारी है।
पूज रहे पंकज की जननी,
सत्तासन की तैयारी है।
'शुभम्' चरण - वंदन तू कर ले,
विपदा कीचड़ ने टारी है।
शुभमस्तु !
23.04.2024●8.30प०मा०
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