शनिवार, 27 अप्रैल 2024

कीचड़-उछाल युग [ व्यंग्य ]

 189/2024 


 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

               यह 'कीचड़-उछाल संस्कृति' का युग है। यत्र-तत्र-सर्वत्र कीचड़- उछाल उत्सव का वातावरण है। कोई भी कीचड़ उछालने में पीछे नहीं रहना चाहता।इसलिए दूसरे पर कीचड़ उछालने में वह अपने अंतर की हर दुर्गंध,दूषण,कचरा,कपट, कुभाव, कुवृत्ति, कुविचार और कुभाषा को कषाइत करने में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहता।यह वह स्थान है,जहाँ हर मानव अपनी मानवता को तिलांजलि देता हुआ बिना किसी भेदभाव के एक ही आसन पर बैठा हुआ पाता है।वहाँ पद,प्रतिष्ठा,पाप-पुण्य आदि ठीक वैसे ही एकासन पाते हैं,जैसे श्मशान में किसी के अंतिम संस्कार में जाते समय अपने अहं को बिसार निर्वेद भाव पर निसार हो जाते हैं।हाँ, एक विपरीत स्थिति यह भी है कि यहाँ अहं नष्ट नहीं होता,अपितु अपने चरम पर होता है।यदि स्वयं का अहं ही नष्ट हो जाएगा तो पराई कीचड़ भी सुगंधित मिष्ठान्न बन जाएगी।फिर वह बाहर उछाली न जाकर हृदयंगम ही की जाएगी।

           यह भी परम सत्य है कि कभी किसी भी मानव या 'महामानव' अथवा 'महानारी 'ने अपने गले में झाँककर नहीं देखा। यद्यपि वह देख सकता था।यदि देख पाता तो कीचड़ -उछाल का आनंद नहीं ले पाता।अपने और अपनों को छोड़ सर्वत्र कीचड़ ही कीचड़ का दृष्टिगोचर होना उसे देवता नहीं बना देता ; क्योंकि सभी देवता गण दूध के धोए नहीं हैं । अब चाहे वे देवराज इंद्र ही क्यों न हों।अपने को स्थापित करने के उद्देश्य से दूसरे की बुराई देखना और उसे सार्वजनिक करना ही कीचड़- उछाल कहा जाता है।लेकिन क्या इससे कोई कीचड़- उछालू गंगा जल जैसा पवित्र मान लिया जाता है? 

          यों तो कीचड़ उछालना मानव मात्र की चारित्रिक विशेषता है।किंतु साथ ही वह उसकी नकारात्मक वृत्ति ही है। वह उसकी महानता में निम्नता लाने वाली है।कीचड़ उछालने वाला अपने अहंकार में किसी को महत्त्वपूर्ण नहीं मानता। वह अपने को सर्वश्रेष्ठ मानता हुआ मानव - शिरोमणि होने का अवार्ड अपने नाम कर लेता है।'मैं ही हूँ' सब कुछ,सर्वज्ञ, सर्वजेता,सर्वश्रेष्ठ। यह भाव उसके विवेक पर पूर्ण विराम लगाता हुआ उसकी चिन्तना को प्रभावित करता है।यह उसके अधः पतन और विनाश का मूल है।वह नहीं चाहता कि कोई और आगे बढ़े। वह किसी भी व्यक्ति या संस्था में अच्छाई नहीं देखता। उसे सर्वत्र बदबू और प्रदूषण ही दृष्टिगोचर होता है।परिणाम यह होता है कि वह 'एकला चलो रे' की स्थिति में आकर अकेला ही पड़ जाता है। जब तक उसे अपने स्वत्व और दोष का बोध होता है,तब तक गंगा में बहुत ज्यादा पानी बह चुका होता है।एक प्रकार से इसे अज्ञान का मोटा पर्दा ही पड़ा हुआ मानना चाहिए। अब पछताए होत कहा,जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत'। 

           यद्यपि वर्तमान रजनीति में कीचड़-उछाल का विशेष महत्त्व है। किसी के ऊपर कीचड़ उछालने से कुछ अबोध जन द्वारा वैसा ही मान लिया जाता है। कहना यह भी चाहिए कि कीचड़ राजनीति की खाद है,वह उसकी पोषक तत्त्व है।जो जितनी कीचड़ उछालने की दम रखता है,उस नेता का स्तर उतना ही बढ़ जाता है।बस कीचड़ उछालने की सामर्थ्य होना चाहिए।यह सामर्थ्य धन बल ,पद बल और सत्ता बल से आती है।भूखा आदमी भला क्या खाकर कीचड़ इकट्टी करेगा। कीचड़ को भी बटोरना ,समेटना और सहेजना पड़ता है।कीचड़-उछालूं में दूर दृष्टि,पक्का इरादा और सहनशीलता की अपार सामर्थ्य होनी चाहिए।सहनशीलता इस अर्थ में कि उसे भी दूसरे की कीचड़ सहन के लिए दृढ़ता होनी चाहिए।

                कीचड़ -उछाल भी एक प्रकार की होली है, जिसमें कोई किसी के द्वारा कुछ भी डाल देने का बुरा नहीं मानता।अपनी मान,मर्यादा ,पद,प्रतिष्ठा आदि को तिलांजलि देकर ही कीचड़ -उछाल की शक्ति आती है।यह भी नेतागण का परम त्याग है, तपस्या है और है अपने चरित्र और गरिमा को अहं के नाले में विसर्जित करने की अपार क्षमता। इस स्थान पर आकर व्यक्ति 'परम हंस' हो जाता है। फिर तो उसे अपने खाद्य -अखाद्य में भी भेद करने का भाव भी समाप्त हो जाता है।यह उसके चरित्र की पराकाष्ठा है।

                 कीचड़ वर्तमान राजीनीति का शृंगार है। आज की राजनीति में कीचड़-गंध की बहार है।इसे कुछ यों समझिए कि यह जेठ - वैसाख की तपते ग्रीष्म में सावन की मल्हार है।वसंत की बहार है।भेड़ों की तरह हाँकी जा रही जनता का प्यार है।वह भी इसी को पसंद करती है ,क्योंकि ये नेतागण भी तो वही डोज देते हैं,जिससे जन प्रिय बनने में कोई रोड़ा न आए।और फिर ये नेताजी भी तो उसी समाज के उत्पादन हैं,जिन्हें उसकी सारी खरी - खोटियाँ देखने - समझने का सुअवसर पहले से ही मिला हुआ है।

         जहाँ आदमी है,वहाँ कीचड़ भी है। वह हर मानव समाज का अनिवार्य तत्त्व है।यह अलग बात है कि वह सियासत का सत्व है।कीचड़ से नेताजी का बढ़ता नित गुरुत्व है।जब नाक ही न हो ,तो कीचड़ की बदबू भी क्यों आए? इस बिंदु पर बड़े - बड़े तथाकथित 'महान' भी स्थित पाए। दृष्टिकोण बदलने से दृष्टि भी कुछ और ही हो जाती है।इसलिए भले ही कहीं कितनी भी कीचड़ हो ;वहाँ पावनता ही नज़र आती है।एक की खूबी स्थान भेद से कीचड़ बन जाती है ।इसका अर्थ भी स्पष्ट ही है कि जो कुछ है कीचड़मय है। इसीलिए कीचड़ के प्रति प्रियता है, लय है।कीचड़ ही वर्तमान सियासत का तीव्रगामी हय है। कीचड़ में वैचारिक क्रांति का उदय है;क्योंकि जन भावना का निज स्वार्थों में विलय है।

 शुभमस्तु ! 

27.04.2024●10.30आ०मा० 

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