168/2024
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डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
जीना - जीना जुदा - जुदा। मरना-मरना और भी जुदा। न जीना आसान ,न मरना आसान।कोई किसी पर खुशी -खुशी मरता है तो किसी के मरने पर जन परिजन दुःखी होते हैं। विलाप करते हैं।सामान्यतः 'मरना' कभी अच्छा नहीं माना गया।किसी के मरने पर घर रोया तो किसी के मरने पर जग रोया। कुछ ऐसे भी बंदे निकले जो देश की रक्षा में मर मिटे।दुश्मन से सीना खोलकर जा डटे और हँसते-हँसते मरण को गले लगा लिया।उधर कुछ ऐसे भी किसी की खूबसूरती पर फूल पर भौंरे की तरह मर गए।न अपनी इज्जत देखी न घर परिवार की ,बस कुछ ऐसा कर बैठे कि मुँह दिखाने के काबिल भी न रहे।
वीर बहादुर मरा तो एक ही बार मरा और कायर तो जीवन में कितनी बार मरा ! मरना किसे नहीं ? मरना तो सबको है। जो जन्मा है,वह मरने के लिए ही।परंतु मरना - मरना भी सबका एक समान नहीं।सबका स्थान और समय भी अलग -अलग निर्धारित है। पर सिवाय एक कर्ता के कोई कुछ भी नहीं जानता।जन्म लेना और मरना प्रकृति का एक सुनिश्चित चक्र है।एक रहस्यमय चक्र है।
प्रकृति का जन्म और मरण का चक्र अनवरत चल रहा है। किंतु उस चक्र की यही एक खूबी है कि नित्य प्रति लाखों करोड़ों के मरने पर दुनिया खाली नहीं दिखाई देती और लाखों करोड़ों नित्य प्रति जन्म लेने पर भी वह वैसी की वैसी ही दिखलाई देती है।जैसे कुछ हुआ ही न हो।एक सीमित दायरे में कुछ खुश हो लेते हैं और एक सीमित दायरे में दुःख और शोक के आँसू बह जाते हैं। शेष संसार के लिए जैसे कुछ हुआ ही न हो। कोई रिक्ति नहीं,कोई भराव भी नहीं। यही तो संसार है। यही संसार चक्र है।समय का पहिया आगे बढ़ता है और मरना जीना अपने संकीर्ण गोले की गोलाइयों में घूमते रह जाते हैं।अद्भुत है यह सब।न कभी खजाना खाली होने का गम और न कभी सागर में कुछ बूँदें बढ़ जाने की खुशी। समुद्र वैसा का वैसा। गंभीर ,शांत ,निश्चल और लबालब।अपनी उत्ताल तरंगों से उद्वेलित तो कभी आनन्द से विह्वल।
न जन्म अपने वश में न मरना ही स्व- वश में। सब समय के हाथ की कठपुतली! बस उसके इशारे पर नाचना तुम्हारा काम है।एक ही बीज है तुम्हारे भीतर ,जिससे और जिसके लिए जिए जाते हो। और जीते -जीते ही मर जाते हो। कुछ भी साथ न लाए थे और न कुछ ले जा पाते हो।एक कर्म रूपी बीज की पतवार ही तुम्हें जन्म- जन्मांतर, देश- देशांतर और माता-पितान्तर की यात्रा करवाती है। शेष कुछ भी तुम्हारे हाथों में नहीं है। तुम्हारे जन्म और मरने (मरण) का वास्तविक बीज तुम्हारे कर्म में छिपा हुआ है।बस उस नित्य परमात्मा के संकेत पर चरैवेति -चरैवेति।
शुभमस्तु !
07.04.2024● 3.15प०मा०
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