163/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
अपने भीतर
छिपाए रखना,
सच न बोलना,
निज जीवन में
विष न घोलना,
जगत ये विषमय पूरा।
झूठों का संसार
रुपहला,
झूठा ही
नहले पर दहला,
सच पोथी की बात
अलग कुछ,
सच का होता
नित प्रति चूरा।
आदर्शों से
चले न जीवन,
पथरीला यथार्थ का
उपवन,
मुँह में राम
बगल में छूरा।
खेत धर्म का
नागफनी उगती है
जिसमें,
राजनीति की बाड़ कँटीली,
फूल रही है रंग-बिरंगी
आग -बबूला।
'शुभम्' सत्य से दूर
रहा जो,
दिखता है वह
फला-फूलता,
भले हस्र
जो भी हो उसका,
चिंता किसको
केवल वर्तमान ही
सब कुछ
वही है धुला दूध का।
शुभमस्तु !
04.04.2024●6.30प०मा०
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