196/2024
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डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
माना यह जाता है कि मनुष्य अपनी सोच से ही वास्तविक मानव बनता है।यह उसकी सोच का ही चमत्कार है कि फिर कोई स्वामी विवेकानन्द पैदा नहीं हुआ।दूसरे राम,कृष्ण, बुद्ध नहीं आए। सोच की लोच से ही आदमी का क्या से क्या बन गया।वह शरीर से आदमी अवश्य बना रहा ,किंतु उसकी सोच ने उसे नीचे गिरा दिया अथवा ऊपर उठा दिया।
सामान्यतः सोच दो प्रकार की होती है। छोटी सोच और बड़ी सोच।तथाकथित बड़ा आदमी कहे जाने वाले अथवा अपनी और दुनिया की नजर में अपने को बड़ा माने जाने वाले आदमी की सोच यदि छोटी होती है ,तो उसे मानव इतिहास बड़ा कदापि नहीं मानता।दुनिया तो स्वार्थ आधारित सोच से ही किसी का मूल्यांकन करती है।जिस व्यक्ति से उसका स्वार्थ सधता हो ,वह उसकी दृष्टि में 'महान' होता है।उधर दूसरी ओर जहाँ अपना उल्लू सीधा न होता हो ,उसे वह महान मानने के लिए एकदम तैयार नहीं है।इससे यह सिद्ध होता है कि इस दुनिया में मनुष्य की महत्ता का आधार उसकी सोच नहीं,आदमी का निजी स्वार्थ है। जबकि तटस्थ रूप से विचार किया जाए तो सोच ही उसकी महानता अथवा क्षुद्रता का आधार है।
आज धरती पर अनेक ऐसे नेता हैं और कुछ ऐसे ही नेता जो इस असार संसार से अलविदा हो गए, अपनी सोच के कारण अपनी नजर में महान और महानता के मानकों की नजर में अत्यंत क्षुद्र हुए हैं ।राजनीति में परिवारवाद अथवा जातिवाद निस्संदेह छोटी सोच के अंतर्गत आगणित किए जाते हैं।फिर ऐसे नेता को महान कैसे कहा जा सकता है ? हाँ,उसके परिवार या जाति विशेष के लिए वे किसी राम कृष्ण से कम नहीं हैं।जो नेता या व्यक्ति मानव मात्र का हितैषी नहीं है, वह महान हो ही नहीं सकता।किसी खूँटे से बंधकर तो एक भैंस बकरी भी घास चर लेती है,फिर इंसान और पशु में भेद ही क्या रह गया!
तथाकथित बड़ों की 'छोटी सोच' से वह तो कलंकित होता ही है,वह देश,समाज, इतिहास के लिए भी नगण्य होता है। छोटी सोच के अनेक रूप और आकार हो सकते हैं।धृतराष्ट्र की अंधी सोच उसके विनाश का कारण बनी।उसी सोच को उसने अपनी संतति दुर्योधन,दुःशासन आदि में भी स्थानांतरित किया।अंततः वह राष्ट्र और परिवार हन्ता ही बनकर रह गया।लाशों के अंबार पर कभी देश नहीं चलाया जा सकता।समाज सुरक्षित नहीं रह सकता।सामने वाले को मिटाकर भला कौन सुख और शांति से जिया है!वर्तमान युग में भी ऐसे नेता गण हैं,जो दूसरे का अस्तित्व ही मिटाना चाहते हैं।उनकी 'एकला चलो रे' की सोच कोई बड़ी सोच नहीं कही जा सकती।केवल 'मैं' और 'मैं' का बिगुलनाद उन्हें उनके स्व समाज से छितरा देता है।प्रत्यक्ष में भले ही कोई कुछ न बोल पाए ,किंतु मनों में खटास तो भर ही देता है। आतंक और भय के बल पर देश क्या एक परिवार को भी नहीं चलाया जा सकता। अपने को सबसे बुद्धिमान ,सर्वश्रेष्ठ और सर्वमान्य समझने की 'छोटी सोच' उसके विनाश का कारण बनती है।पैसे से खरीदा गया आधिपत्य दीर्घजीवी नहीं हो सकता।किसी की देह को खरीदा जा सकता है,किन्तु आत्मा को नहीं।
मजे की बात यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सोच की 'छोटाई' या 'बड़ाई'अवश्य पहचानता है।वह 'छोटी सोच' का स्वामी बनकर भी अपने को 'महान' सनझने और जतलाने की सफल अथवा असफल कोशिश करता है। सोच की वास्तविकता किसी से किसी भी तरह छिपाई नहीं जा सकती।हमाम में लोग नग्न हो सकते हैं अथवा न होते हैं,किन्तु सबकी सोच उन्हें समाज या देश में नंगा अवश्य कर देती है।व्यक्ति के कर्म और उसकी कार्यप्रणाली उसकी सोच के मूल में रहते हैं।वही उसे दुनिया के समक्ष उजाकर करते हैं।विचारों की व्यापकता ही व्यक्ति की महानता का मूल है और विचारों की क्षुद्रता ही उसे मानव देह में भी सूकर कूकर बना डालती है।कोई व्यक्ति किसी उच्च पद या स्थान पर है,इससे वह महान नहीं बन जाता। कौवा अंततः बैठेगा तो गोबर के ढेर पर ही न ?जैसे कोई बगुला हंस नहीं हो सकता, वैसे ही 'छोटी सोच'धारी कभी महान नहीं हो पाता।उनका नाम इतिहास स्वर्णिम अक्षरों में अंकित नहीं करता,वरन काले अक्षरों में ही लिखता है।सोच से ही मानव से महामानव बनता है और सोच से ही महादानव। शरीर तो दोनों का एक जैसा ही होता है,किन्तु सोच आधारित कर्म उसका उत्थान पतन करते हैं। नौ सौ चूहे खाकर यदि बिल्ली हज को जाए तो वह शेर सिंह नहीं बन जाती।आज के तथाकथित 'महानों' का स्तर भी चूहे खाए हुए हाजियों के समान ही है।
शुभमस्तु !
30.04.2024●9.45आ०मा०
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