161/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
बीत गए वे
दिन अतीत के
नहीं रहे वे खेल।
नहीं बनावट
थी जीवन में
और नहीं कुविचार।
सादा जीवन
ऊँचा चिंतन
जीवन ज्यों खिलवार।।
टायर लिए
पुराना कोई
चलती अपनी रेल।
कभी कबड्डी
खेले मिलकर
दौड़े नंगी देह।
नहीं माँगते
पैसे घर से
खूब नहाते मेह।।
लंबी ऊँची
कूद कूदते
सबसे रखते मेल।
गिल्ली डंडा
हरियल डंडा
गेंद खेलते रोज।
नंगे पाँव
न महँगे जूते
रहता मुख पर ओज।।
आँधी पानी
कुछ भी आता
सबको लेते झेल।
शुभमस्तु!
02.04.2024●9.00 आ०मा०
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