रविवार, 17 सितंबर 2023

आस्तीन के निवासी ● [ व्यंग्य ]

 404/2023



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●© व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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           एक बहुत पुरानी और कु-प्रसिद्ध कहावत भला किसने नहीं सुनी होगी। यदि सुनना ही चाहते हैं तो सुन भी लीजिए और पढ़कर वाचन भी कर लीजिए।कहावत कुछ यों है : 'आस्तीन में साँप पालना । 'आस्तीन का साँप होना।' कहावत की पुरातनता वर्तमान में भी उतनी ही प्रासंगिक है ,जितनी अनादि काल में रही होगी।अंततः महाराजा परीक्षत द्वारा कराए गए नागयज्ञ में संसार के सभी नाग भस्म नहीं हो पाए थे कि बचे हुए नागों के जीवनदाता बने ऋषि आस्तीक ने उनके बीज बचा ही डाले; जो आज भी मानव समाज को डंस रहे हैं।निरंतर डंसे चले जा रहे हैं। इतना बड़ा नागयज्ञ होने पर भी इतने साँप बचे रह गए। इसका श्रेय ऋषि वर आस्तीक को जाता है।

            [प्रसंगवश उनका परिचय बताना भी आवश्यक हो जाता है।आस्तीक माता मनसा और पिता जरत्कारु से उत्पन्न संतान थे। गणेश,कार्तिकेय और भगवान अय्यपा उनके मामा ,देवी अशोकसुंदरी और देवी ज्योति उनकी मौसी,राजा नहुष और अश्वनी कुमार नासत्य उनकर मौसा,शिवजी और पार्वती उनके नाना - नानी थे। 

         गर्भावस्था में आस्तीक ऋषि की माँ कैलाश पर्वत पर चली गई। अतः भगवान शंकर द्वारा उन्हें ज्ञानोपदेश दिया गया। गर्भावस्था में ही धर्म और ज्ञान का उपदेश पा लेने के कारण इनका नाम 'आस्तीक' रखा गया।उन्होंने महर्षि भार्गव से सामवेद का अध्ययन पूर्ण करने के उपरांत नाना भगवान शंकर से मृत्युंजय मन्त्र का अनुग्रह प्राप्त किया और माता के साथ अपने आश्रम लौट आए।राजा जनमेजय के पिता राजा परीक्षत की मृत्यु सर्पदंश से होने के कारण उन्होंने समस्त सर्पों का विनाश करने के लिए सर्पसत्र (नागयज्ञ) का आयोजन किया।यज्ञ के अंत में तक्षक की बारी आने पर पिता जरत्कारु ने उसकी प्राणरक्षा के लिए पुत्र आस्तीक को वहाँ भेजा।आस्तीक ऋषि ने अपनी सम्मोहक वाणी के प्रभाव से राजा जनमेजय को मोह लिया।उधर तक्षक घबराकर इंद्र की शरण में जाकर छिप गया।जब ब्राह्मणों के आह्वान पर भी तक्षक वहाँ नहीं आया ,तब 'इन्द्राय तक्षकाय स्वाहा' मंत्रोच्चार करने पर इंद्र ने उसे मुक्त कर दिया और वह यज्ञकुण्ड पर आकर खड़ा हो गया।राजा जनमेजय ऋषि आस्तीक से वचनबद्ध हो चुके थे। उसी वचनबद्धता के कारण उन्होंने तक्षक को भस्म होने से बचा लिया और राजा का सर्पसत्र भी रुकवा दिया।वचनबद्ध जनमेजय ने खिन्न होकर तक्षक को मन्त्र- प्रभाव से मुक्त कर दिया।तब सभी सर्पों ने आस्तीक को वचन दिया कि जो भी तुम्हारा ध्यान करेंगे या आख्यान को पढ़ेंगे ;उन्हें वे कष्ट नहीं देंगे।जिस दिन नागों को प्राणदान मिला ,उस दिन पंचमी थी,इसलिए आज भी उस दिन नागपंचमी मनाई जाती है।] 

              सांप नष्ट होने से बच गए ,इसलिए कहावत भी बच गई अन्यथा वह भी यज्ञकुण्ड में भस्म हो गई होती।अब प्रश्न ये है कि ये साँप ,शंकर भगवान की तरह पाले जाते हैं अथवा स्वतः पलकर आस्तीन में अपना घर बना लेते हैं?कुछ सपोले औऱ कुछ प्रौढ़ सर्प भी आस्तीनों में पलते हुए देखे गए हैं। सपोले पहले आस्तीन में घुसे -घुसे दूध पीते हैं और वे ही वयस्क होकर जिसका पीते हैं ,उसी को डंसते भी हैं।बस अवसर की तलाश भर रहती है । अन्यथा क्या साँप अपनी प्रकृति को छोड़ सकते हैं? जब साँप पल ही जाता है ,तो पालक को कुछ न कुछ लाभ भी पहुँचाता ही होगा। अन्यथा भला कोई भला मानुष क्यों अपनी ही आस्तीन में पालने लगा?ऐसा भी हो सकता है कि प्रारम्भ में आदमी जिसे केंचुआ समझे बैठा हो ,वही साँप सिद्ध हो जाए! ये तो डंसने के बाद ही पता लगता है कि वह साँप था ! जब तक वह बिल में सीधा चले, तब तक तो कोई अनुमान नहीं, किन्तु जिस पल वह धोखा देकर डंस ले और वक्राकार चलने लगे ,तब होश आए कि जिसे हम केंचुआ माने बैठे थे;वह तो साँप निकला। हाय !धोखा हो गया।

              पता नहीं कि कौन कब किसके लिए आस्तीन का साँप बन जाए? मित्र के लिए मित्र,पड़ौसी के लिए पड़ौसी, सहेली के लिए सहेली, सास के लिए बहू या बहू के लिए सास,डॉक्टर के लिए उसका कंपाउंडर,गुरु के लिए शागिर्द,अधिकारी के लिए कर्मचारी, नेता के लिए गुर्गा, व्यापारी के लिए उसी का नौकर आदि ऐसे हजारों लाखों उदाहरण हैं ,जहाँ अज्ञान के अँधेरे में आस्तीनों में ही पलते हुए साँप या सपोले अपने 'कारनामों' से टी.वी.,अखबार की नित्य की सुर्खियां बनते हैं। आज के युग में तो अपनी ही संतानें भी आस्तीन के साँपों की भूमिका बख़ूबी निभा रही हैं।वे स्व - परिश्रम से नहीं ; बाप और माँ के रक्त की बूँद-बूँद तक चूस लेना चाहती हैं।यही तो उनका सपोले से साँप बन जाना है। सपोलापन है।सबसे गंभीर मामला तो यही है।क्योंकि संतति रूपी साँप से दंशित माँ - बाप पानी भी नहीं माँग सकते । जब अपने उद्धारक का ही रक्त विषाक्त हो जाए! फिर विश्वास कहाँ और कैसे किया जाए? दूध का जला (वह भी अपने दूध का !) छाछ भी फूँक -फूँक कर ही पीता है। 

क्ति ,समाज और राष्ट्रीय स्तर पर असंख्य आस्तीन के साँपों की गणना करना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है।इन साँपों की प्रकृति ये भी है कि वे साँप की शक्ल में न होकर मानुष की शक्ल में ही अपना उल्लू सीधा करते हैं। इन्हें बहुरूपिए भी कहा जा सकता है: कहीं चिलमन में , कहीं चाक चौबंद चमन में। कभी अपनी बगल में,कभी दामन के सहन में।। आस्तीनों के साँप डंसा करते हैं, हमें ही खोखला कर रहे हैं अपने वतन में। 

            सांप की प्रकृति ही जहरीली है।इंसान को कागज़ का साँप भी डरा देता है।जिंदा साँप की तो बात ही क्या है !ये भी असत्य नहीं कि साँप कभी अपने अपना घर ,अपने बिल नहीं बनाते ।वे तो दूसरों के पूर्व निर्मित बिलों में ही रहते हैं।दूसरों का ,मुफ्त का,छीन- झपट कर लिया हुआ हराम का खाना ही वे अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं।पराश्रयी जीवन ही उनका संस्कार है।इस बात को हमें और आपको कभी नहीं भूलना है कि आस्तीन वाले साँप कभी साँप - शरीर में नहीं मिलते। उनके अन्य अनेक रूप और देह हो सकते हैं।

            आस्तीनें रहेंगीं। पर उन्हें देखना ,परखना और जाँचना भी होगा कि साँप न पनपने लगें।सावधानी हजार नियामत।स्वस्थ परिवार,व्यवसाय, रोजगार,व्यापार,समाज और देश के लिए आस्तीनों के साँपों के फनों को कुचलते जाना भी अनिवार्य है।उनके लिए ऐसे जनमेजय बनें कि कोई आस्तीक अपने मोहन- मंत्र से उन्हें अपने सत्कर्म - सर्पसत्र से विरत न कर सके। क्योंकि ये अपने स्वभाव को नहीं बदलेंगे।जहर उगलना और समीपस्थ को डंसना इनका संस्कार है। न इन्द्र बनकर उनके रक्षक बनना है और न ही लुभावन - वाणी से कर्तव्य - च्युत होना है।यदि तक्षक न बचता तो नाग -वंश भी शेष नहीं होता। 

 ●शुभमस्तु !

 17.09.2023◆ 2.30 प.मा. 

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