422/2023
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● © शब्दकार
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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यों भी किसी व्यक्ति का नाम लेना उचित नहीं होता। ये तो मानो पीठ पीछे की बात है,फिर भी भला मेरी क्या बिसात है ; जो किसी का नाम ले सकूँ!नाम लेने में डर भी है और खतरे भी।किसी के बुरा मान जाने का भी अंदेशा है। वैसे यह भले -भले लोगों के लिए सु - संदेशा है।अब आपके मन में यह जिज्ञासा हो गई होगी कि मैं किस विषय को चर्चा -ए-खास बनाने जा रहा हूँ।यदि आपमें तनिक - सी धैर्य धारण की शक्ति हो तो वह सब कुछ अल्प क्षणों में आपकी नजरे- इनायत होगा।
बात नाम से श्री गणेशित हुई थी।नाम में भी भला क्या धरा है ! और ये भी है कि अंततः आदमी नाम के लिए ही तो मरा है।घर, गाँव और नगर छोड़ कर यहाँ का वहाँ पर और वहाँ का जाने कहाँ -कहाँ पर पड़ा है।नाम और काम के लिए कहीं खड़ा या अड़ा है।या तिरछा बन चढ़ा है।
अब आप ही जानते हैं कि आदमी स्व - नाम के लिए क्या- क्या नहीं कर गुजरता ? मरता क्या न करता ! क्या उसका जीवन यों ही धक्के खाते हुए ढलता ! आँखों का सपना क्या आँखों में ही टर्र- टर्र कर टलता!किसी की खुशी में शरीक होने से खुश व्यक्ति को कितना आनंद अनुभव होता होगा ,यह तो आप अपने सीने पर हाथ रखकर ही अनुभव कर लीजिए कि जब आपके घर में पुत्र रत्न (यह तो बाद में ही पता चलता है कि वह वास्तव में रत्न है या कंकड़ का टुकड़ा !) का जन्म होता है तो आप के जताने- बताने अथवा सु - समाचार के हवा में उड़ जाने से लोग आपको बधाई देते हैं ,तो आपकी खुशी हजारों गुणा बढ़ जाती है। इसी प्रकार की अपेक्षा हर एक व्यक्ति अपने मित्रों ,संबंधियों, पड़ौसियों, मिलने वालों ,परिचितों आदि से करता ही है। यह मानव- स्वभाव है। चूँकि मनुष्य एक सामाजिक जन्तु भी है ,इसलिए ये अपेक्षा और भी बलवती हो जाती है।
यदि आपकी अपेक्षाओं पर आपका कोई शुभचिन्तक खरा नहीं उतरे और वह आपका 'अशुभचिंतक' बन जाए ! तो आपको पता लगे या न लगे !लग तो जाता ही है कि अन्तर्भावस्थिति आपके अंतर तक स्वतः पहुँच ही जाती है।और वह भी नकारात्मक ऊर्जा का संचार करती हुई।अर्थात उसकी प्रज्वलित ईर्ष्याग्नि की दहकती हुई लपट आपको तप्त करने लगती है।हो सकता है आपकी अति सामीप्यता वश आप बेधड़क होकर पूछ ही बैठें तो उसके पास बगलें झाँकने के सिवाय कुछ भी कहने या सफाई देने को शेष नहीं रहेगा। सफाई भी देगा तो सौ में सौ फ़ीसद झूठी।कुछ टूटी फूटी। बहाने की बूटी !जी हाँ, बहाने ,बहा देने की बूटी !कुछ बूटियों के नमूने भी देख लीजिए।यथा:
1. :मैं बहुत व्यस्त था,आपका संदेश देख नहीं पाया।'
2.' अरे !मुझे तो अब पता चला कि आपकी कोई किताब प्रकाशित हुई है!'
3. 'अरे !आपको इतना बड़ा राष्ट्रीय सम्मान मिला और हमें हवा भी नहीं!अब तो पार्टी -सारटी बनती है।'
4. 'बिना कुछ खिलाए -पिलाए कैसे मान लें कि आप देश के इतने बड़े साहित्यकार भी हैं!'इसीलिए बधाई भी नहीं दी। जब पार्टी दोगे तब बधाई भी मिल जाएगी। इस हाथ से उस हाथ ले। ले भला कोरे - कोरे वाहवाही लूटना चाहते होगे!'
5.'मैं बाहर चला गया था।'(शहर से !दिमाग से नहीं!)
6.'मैं बीमार हो गया था। इसलिए संदेश नहीं देखा।'
7.' मेरी एक पत्नी अचानक अस्वस्थ हो गई तो सब कुछ भूल गया।'
8.'बेटी को देखने आने वाली थी एक पार्टी। वह भी आई नहीं।उधर आपको शुभकामनाएं भी नहीं भेज पाया। सॉरी !'
9.' एक कवि सम्मेलन में बाहर चला गया था। वहाँ पर नेटवर्क नहीं था।'
10.''मेरा मोबाइल खराब हो गया था।' आदि - आदि।
इसी प्रकार के 'अशुभचिंतन' के हजारों लाखों उदाहरण हो सकते हैं।आखिर कुछ न कुछ सफ़ाई देना भी तो मुँह छिपाने के लिए चादर का होना अनिवार्य है।यही वे सब चादरें हैं।
मानुस- समाज में ऐसे -ऐसे विचित्र नमूने यदि एक हो ,तो कोई बात हो। यहाँ तो कदम कदम पर एक ढूँढ़ो तो हज़ार मिलते हैं।नकद माँगों तो उधार मिलते हैं।जब आत्मीयता नहीं होती तो झूठा लबादा तो ओढ़ना ही पड़ता है। इतना स्प्ष्ट है कि इससे सामने वाला हमाम में नहीं , खुली सड़क पर नंगा हो जाता है ! पर बेशर्माई पर हजार बार लानत! रखा रहे अपने पास अपनी जलन की इबारत! इससे क्या किसी की टूटने वाली है किसी की ऊँची इमारत? कदापि नहीं जी। कदापि नहीं। परंतु बेचारे श्वान की असली औकात पता चल ही जाती है। 'स्वयं वैसा नहीं हो पाया ' - की दारुण दग्धक भावना अन्तरग्नि के रूप में अदृष्ट हो ही जाती है। यही उसका मूल है।जो उसके हृदय में चुभता हुआ शूल है।अब इस बात को ज्यादा क्यों दिया जाए तूल है!चूल्हे में डालो और पादांगुष्ठ की नोंक पर हवा में उछालो।
●शुभमस्तु !
27.09.2023◆8.45 प०मा०
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