शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

पड़ौसी ● [ व्यंग्य ]

 

●●●●●●●●●●●●●●●●●●●● 

● ©व्यंग्यकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 ●●●●●●●●●●●●●●●●●●●● 

       सैकड़ों वर्ष पहले महात्मा कबीरदास हमें जो लिख कर दे गए ; वह अपने सभी अर्थों और 'अनर्थों' में सार्थक और सटीक ही सिद्ध हुआ है:- 

 'निंदक नियरे राखिए,आँगन कुटी छवाय।

 बिन पानी साबुन बिना,निर्मल करे सुभाय।।' 

          कहने का भाव यही है कि किसी को एक बुरा पड़ौसी भी सौभाग्य से मिलता है।चौदह अगस्त सन एक हजार नौ सौ सैंतालीस को यह सौभाग्य हमें अर्थात हमारे भारत देश को प्राप्त हुआ।जिसका सोत्साह समारोह पूर्वक समागम सारा देश करता है।हमारा देश ही नहीं ,प्रत्युत वह पड़ौसी भी करता है। जब आज वह हमारे लिए बुरा है तो हम भी तो उसके लिए बुरे ही मान्य होंगे। यह अलग बात है कि हम और हमारा देश कितना अच्छा या बुरा है।यह तो सारी दुनिया जानती है। जग जाहिर ही है। इसलिए हमें यहाँ पर यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है कि अन्ततः हम हैं कैसे? हम तो हैं आज भी वैसे के वैसे , जैसे थे सतहत्तर साल पहले जैसे। 

          बुरा पड़ौसी होने के अनेक लाभ हैं। इससे हम बेखटके घोड़े बेचकर सो नहीं सकते।उधर वह पड़ौसी भी अपने गधे - खच्चर बेचकर नहीं सो सकता! क्योंकि जो दूसरे की नींद हराम करने की सोचता है , उसकी नींद तो पहले ही हराम हो चुकी होती है।जलने का एक विशिष्ट सिद्धांत है कि जो किसी को जलाना चाहता है ,(यह अलग बात है कि वह किसी को जला पाए अथवा नहीं) ,वह उपले के अंगार की तरह पहले स्वयं जलकर खाक हो चुका होता है ,बाद में बची -खुची जलन से दूसरे को तप्त कर सकता है। वास्तविकता ये है कि उसमें आग की तपन बची हुई भी तो हो ? बुझी हुई राख से बेचारा जलाना तो क्या झुलसा भी नहीं पाएगा! कभी - कभी तो ऐसा भी होता होगा कि भरी कड़ाकेदार शीत में एक कम्बल का सम्बल बनकर गरमाएगा। जो हमें दुःखद न होकर सुखद ही होगा।तो एक बुरा पड़ौसी होने का यह बहुत बड़ा लाभ हुआ कि वह हमारे जागरण,चेतना और सावधानी का कारक बनकर उभरता है। चूँकि वह हमारे आस - पास ही है, इसलिए यदि इधर - उधर से कोई पत्थर का टुकड़ा भी हमारे आँगन में गिरा मारता है तो हम उसे उसी का प्रक्षेपित- अस्त्र मान कर जाग जाते हैं। भले ही वह किसी आस्तीन के साँप/ साँपों द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम हो।जब कभी आतिशबाजी ,फुलझड़ी या बम-पटाखे की आवाज या उनके खण्डांश भी प्राप्त हो ही जाते हैं, जो उसकी आंतरिक मनोभावना के सबल ,प्रत्यक्ष और जीवित प्रतीक होते हैं। 

      सौभाग्यवश यदि एक नहीं ;दो - दो या उससे भी अधिक बुरे पड़ौसी हो जाएं ,तो फिर सोने में सुहागा ही हो जाए।और यह सौभाग्य हमारे हिस्से में आया है कि हमारे एकाधिक पड़ौसी कुछ इसी प्रकार के हैं। जो समय- समय पर हमारी पीठ में बर्छी -भाले कोंचते रहते हैं। इसे हम किसी मच्छर-मानिंद मान कर कभी मसल देते हैं तो कभी रगड़ मारते हैं।इतना तो हमारा उनके प्रति फर्ज़ भी बनता है ,ताकि वे हमें कमजोर न समझने लगें। इसलिए अपने झापड़ के पापड़ को खिलाना भी अनिवार्य भी हो जाता है।किंतु उनकी आदत जो इतनी खराब पड़ गई है कि बाज नहीं आते। हम सोचते हैं कि मच्छरों के लिए तलवार का वार क्यों किया जाए? 'जहाँ काम आवे सुई कहा करे तलवार।' सुई की नन्हीं- सी नोंक पर पंच हो जाने वाले जुएँ के लिए हमारा तोप ,गोला और बारूद झोंकना निज शक्ति का अपव्यय ही माना जायेगा। और फिर दूरस्थ मित्र-मंडली में हमारी शाख भी क्या रह जाएगी भला! इसलिए कभी नजरंदाज करके ,कभी माफ करके और कभी साफ़ करके अपनी उचित कार्यवाही को अंजाम देते हैं। भैया !पड़ौसी -धर्म तो निभाना ही होता है, सो निभा देते हैं। और करें भी क्या ? आखिर पड़ौसी तो पड़ौसी ही होता है।कोई दुश्मन थोड़े ही है ,जो निबटा दें। दुनिया क्या कहेगी कि गरीब परिजीवी मच्छर को भून डाला ! कुछ दूरस्थ ये भी तो सोचेंगे कि बड़ा ही बदतमीज था साला , हमें तो पहले ही पता था एक दिन ऐसा ही है होने वाला ! वैसे भी निकला हुआ है दिवाला ! पर बुरी आदत नहीं छोड़ता।खाली कटोरा लिए फिर रहा है ,पर बिच्छू की आदत ही है कि डँसना है ,तो डंसना है। 

           पड़ौसी का अपने पड़ौसी से निकट का सम्बंध होता है।देखा नहीं कि कभी चीनी ,कभी चाय की पत्ती ,कभी जामन तो कभी आटा- दाल ही माँग लाते हैं। कभी - कभी हम भी उससे नमक (लाहौरी) खरीद लेते हैं ; परंतु अपनी माली हालत को देखते - समझते हुए भी हमसे लोहा लेना नहीं छोड़ता।छोड़े भी क्यों ? अंश किसका है ! वंश के अंश का ध्वंश थोड़े हो गया है ? जो संस्कारवश स्वतः प्राप्त डी० एन०ए० का असर भुला दे ? 

             जिस पड़ौसी के अस्तित्त्व से हमारा भी गन्दा स्वभाव निर्मल हो जाए ,और वह भी बिना साबुन-पानी का प्रयोग किए हुए ही !(इसका मतलब यह भी हुआ कि कबीरदास के समय में भी साबुन का प्रयोग होता होगा ,तभी तो ये शब्द निकल कर बाहर आया होगा।) स्वभाव के शुद्धीकरण का काम भी हमारे लिए फ़ायदे की ही बात हुई न ? उससे बराबर हमारे मन के मैल स्वतः धुलते , घुलते ,निकलते,पिघलते रहते हैं। जिस पड़ौसी के बुरेपन में भी हमने अर्थात उसके पड़ौसी ने अनेक आच्छादनकारी अच्छाइयों के सु - दर्शन किए;उसमें यदि कोई छोटी - मोटी बुराई भी हो ; तो उसे क्या देखना ? नजरअंदाज करना ही बेहतर होगा। उसे हमने बुरा - पड़ौसी तो पहले ही घोषित कर दिया है। इसलिए अब उसकी बुराइयों की बारीक लिस्ट में अवशिष्ट ही क्या है ? अंत में यही कह सकते हैं कि अच्छा पड़ौसी यदि महा सौभाग्य है तो बुरा पड़ौसी किसी भाग्य से कम नहीं है।वह ज्यादा सोने से बचाता है ,स्वयं भी न सोता है और न सोने ही देता है। जब कोई कम सोएगा तो सक्रिय भी अधिक रहेगा । ज्यादा काम करेगा ,तो बड़ा नाम भी करेगा। किसी की जलन हमें विकास ,प्रगति और समृद्धि की ओर अग्रसर करती है। यही काम हमारा पड़ौसी भी कर रहा हो तो बुरा भी क्या है ?सब भला ही भला है। ये भी देश की उन्नति की एक प्रगतिशील कला है।उसकी जलन की आग में हम हाथ सेंकते रहें और वह समझे कि वह जला रहा है। 

                  किसी से जलन रखने वाला व्यक्ति हो ,समाज हो,जाति हो, वर्ग हो या देश ही क्यों न हो! वह जलन इसीलिए रखता है कि बनना तो वह वैसा ही चाहता है; किंतु यदि चाहने भर से कोई कुछ बन जाए या बदल जाए तो हम भी कब के अमरीक़ा रूस बन गए होते। पर हम, हम हैं। वे, वे हैं। कोई किसी के जैसा चाह कर भी नहीं बन सकता। यही असमर्थता उसे जलाती है। प्रकृति ने सबका सृजन अलग - अलग साँचे में करके मूर्त किया है। इसीलिए राम राम हैं ,कृष्ण कृष्ण हैं, बुद्ध बुद्ध हैं। कोई किसी के जैसा नहीं है, तो एक पड़ौसी दूसरे जैसा हो भी कैसे सकता है! पड़ौसी की जलन ही उसकी रक्षक है, स्वच्छक है, गुडलक है।


 ● शुभमस्तु !


 29.09.2023◆12.15 प०मा०


 ●●●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...