427/2023
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● © लेखक
● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है।उसके चिंतन की चर्खी निरन्तर चलती रहती है। 'चिंतक' शब्द का निर्माण 'चिंता' से हुआ है।प्राणिजगत में इस चिंता ने ही उसे अपने प्राणत्व की सबल सामर्थ्य के आधार पर इतना अग्रगामी बना दिया है कि वह अब रोकने से भी रुकने वाला नहीं है।कितने भी गति-अवरोधक लगा लें ,उसे कोई भी आगे बढ़ने से रोक नहीं सकता।वह चिंतन ,अनुचिंतन,बहुचिन्तन, अंतःचिंतन, बहिर्चिंतन,निज चिंतन, जगचिंतन,परचिन्तन, सुचिन्तन,कुचिंतन,मधुचिंतन, कटुचिंतन,बदचिंतन,वाद चिंतन,स्वादचिंतन,आबाद चिंतन,बर्बाद चिंतन,अच्छाद चिंतन,प्रसाद चिंतन,अवसाद चिंतन,हास्य चिंतन,लास्य चिंतन, आवास चिंतन, अर्थ चिंतन, अनर्थ चिंतन, कला चिंतन, सहित्य चिंतन,दार्शनिक चिंतन, ज्ञान चिंतन,विज्ञान चिंतन,धर्म चिंतन, अधर्म चिंतन,चोर चिंतन,घोर चिंतन, अघोर चिंतन,बरजोर चिंतन,प्रेयसी चिंतन, प्रेमी चिंतन, पत्नी चिंतन, सपत्नीक चिंतन, संतति चिंतन,पितृ चिंतन,कार्य चिंतन, बाज़ार चिंतन,देश चिंतन, विदेश चिंतन,मान चिंतन,अपमान चिंतन,चारु चिंतन ,अचारु चिंतन,वर्तमान चिंतन, अतीत चिंतन,भावी चिंतन,काव्य चिंतन , गद्य चिंतन, व्यंग्य चिंतन,व्यवसाय चिंतन आदि अनेकशः चिंतन किया करता है।
चिंतन की पात्रता अलग - अलग पात्र पर अलग -अलग हो सकती है। कोई कोई पात्र बहु चिन्तनशील भी होता है।मानव व्यक्तित्व की बहु आयामी चिंतना कब किस रूप में होती है;कहा नहीं जा सकता। मानव का मन पानी पर चलती लहर की तरह चलायमान रहता है।कभी ऊपर कभी नीचे।कभी इधर कभी उधर। कभी ठंडा कभी गर्म।कभी कठोर कभी नर्म।कभी मष्तिशकीय कभी मर्मीय। वह नियंत्रणीय भी है और अनियंत्रणीय भी।
सोते, जागते और स्वप्न देखते हुए भी चिन्तन -चर्खी का घूर्णन अनेकशः चमत्कार करता है चिन्तन से उसे कभी चैन नहीं ,विश्राम नहीं ,ठहराव नहीं, उलझाव नहीं। कोई गणना नहीं कि चर्खी ने कितने चक्र पूर्ण किए। जैसे छत- पंखा निरन्तर घूर्णन करते हुए कब किंतने चक्र लगा गया ,इसका कोई आगणन नहीं होता। ठीक उसी प्रकार मन का चिंतन भी अविराम और हृदय की तरह आजीवन अनथक घूमता है और मानवीय सफलता किंवा असफलता के बहु आयाम चूमता है। स्व- सफलता पर झूमता है तो असफलता पर ऊँघता है।
कहा गया है कि 'सब ते भले वे मूढ़ जन जिन्हें न व्यापे जगत गति।' यह चिंतना की बात इस प्रकार के मानव देह धारियों पर प्रभावी नहीं होती।उन्हें तो मानव देह में शूकर- श्वान समान ही मान्य किया जाता है। जिस प्रकार शूकर अपनी मस्ती में आकंठ निमग्न रहता हुआ पंकाशय में पड़ा - पड़ा गड़ा -गड़ा रहता है। उसी तरह ऐसे नर तन धारी जीव भी अपने स्वत्व से बेखबर लीन रहते हैं।दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है ! उन्हें क्या करना ?क्यों जानना ? क्यों किसी को मानना , अपनी मस्ती में निजत्व को ढालना ।टीवी ,अखबार ,सोसल मीडिया उसके किसी काम के नहीं।सब गलत, वह अपने में सही। उसके जैसा कहीं कोई भी नहीं।क्यों करे वह भी अपने दिमाग़ का दही। उसकी तो अपनी कीचड़ में ही गंगा यमुना बही।इसीलिए तो उसने स्व मस्ती की गैल गही।
चिंतना के इतने बृहत सागर में डूबता - उतराता मानव अपने अंतिम क्षण तक उससे उबर नहीं पाता। यहीं पर वह खग ,पशु, जलचर ,स्वेदज,अंडज और पिंडज से भिन्न हो जाता है। उसके मन - मष्तिष्क की यह विशेषता सर्व अग्रणी जंतु की कोटि में स्थापित कर देती है।जिसे आज कोई भी नहीं छू सका है। हाँ,इसी चिंतना के बल पर वह चाँद ,सितारों, मंगल ,शुक्र आदि की ऊंचाइयों को पा सका है।उसकी चिंतना की चमत्कारिता ने मोबाइल ,कम्प्यूटर और रोबोट जैसी मशीनें बना डाली हैं। जो अपनी क्षमता में एक से एक निराली हैं।
आइए हम सब मानव की नवल चेतना का अवगाहन करें और उसके उच्चतम शृङ्गों का स्पर्श करें। सु -चिंतनशील अग्रणी मानव बनें।मानव की देह में दानव न रहें। प्रकृति द्वारा प्रदत्त हमारा यही सबसे महान उपहार होगा।इस नश्वर देह का उपकार होगा। 'ऋणम कृत्वा घृतं पिबेत' से जीवन का उद्धार नहीं होगा। कर्म -फल कभी न कभी कृतकार्य होगा।
● शुभमस्तु !
29.09.2023◆ 7.45प०मा०
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